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________________ [समराइचकहा जं तए परियप्पियं । जओ आयघाओ वि पडिकुट्ठो चेव धम्मपयत्थजाणएहि । भणियं च भावियजिणवयणाणं ममत्तरहियाण नत्थि हु विसेसो। अप्पाणम्मि परम्मि य तो वज्जे पीडम भओ वि ॥४११॥ जं च अफज्जायरणकलंकदूसियं अत्ताणं मन्नसि ति, एयस्स वि जिणवयणाणुट्ठाणजलं चेव पक्खालणं, न उण अन्नं ति । जंपिचितियं 'संपाडेमि जहा समीहियं ति, एत्थं पि अलं तेण भवाणुबंधिणा संपाडिएण संपाडेहि असंपाडियपुव्वं तेलोक्कबंधवाणं जाइजरामरणबंधणविमुक्काणं तित्याराणं सासणं । एत्थरम्भि मग गयाहिप्पायपयडणेणं 'अहो भगवओ नाणं' ति मन्नमाणो 'इमाओ चेव पच्छित्तमवयच्छिस्सं' ति आणंदबाहजलभरियलोयणो पडिओ मुणिवरस्स चलणेसु राया। विन्नतो तेण भयवं मणिवरो-भयवं, कहेहि किमेत्थ पायच्छित्तं' ति? मुणिवरेण भणियं-महाराय, पडिवक्खासेवणं । तं पुण न नियाणवज्जणमंतरेणं ति, नियाणं परिहरियध्वं । नियाणं च एत्थ मिच्छत्तमोहणायसंगयं अन्नाणं । तं च मन्नहा ठिएसु आवेसु अन्नहा पवज्जणं ति । चितियं च तुमए अत आत्मघातोऽपि प्रतिकुष्ट एवं धर्मपदार्थज्ञायकैः । भणितं च भावितजिनवचनानां ममत्वरहितानां नास्ति खलु विशेषः । आत्मनि परस्मिश्च तता वर्जयेत् पीडामुभयोरपि ॥४११।। यच्चाकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानं मन्यसे इति, एतस्यापि जिनवचनानुष्ठानजलमेव प्रक्षालनम्, न पुन रन्यदिति । यदपि चिन्तितं 'सम्पादयामि यथासमीहितमिति, अत्रापि अलं तेन भवानुबन्धिना सम्पादितेन । सम्पादयासम्पादितपूर्वं त्रैलोक्यबान्धवानां जातिजरामरणबन्धनविमक्तानां तोयंकराणां शासनम् । अत्रान्तरे मनोगताभि-यप्रकटनेन 'अहो भगवतो ज्ञानम्' इति मन्यमानः 'अस्मादेव प्रायश्चित्तमवगमिष्यामि' इति आनन्दबाष्पजलभृतलोचनः पतितो मुनिवरस्य चरणयो राजा । विज्ञप्तस्तेन भगवान् मुनिवरः-भगवन्! कथय किमत्र प्रायश्चित्तमिति । मुनिवरेण भणितम् --महाराज ! प्रतिपक्षासेवनम् । तत्पुनर्न निदानवर्जनमन्तरेणेति निदानं परिहर्तव्यम् । निदानं चात्र मिथ्यात्वमोहनोयसङ्गतमज्ञानम् । तच्चान्यथा स्थितेषु भावेष्वन्यथा प्रपदन मिति । आप ऐसा मत सोचें, इसका यह प्रायश्चित्त नहीं है जो आपने सोचा है । धर्मरूपी पदार्थ को जानने वालों के लिए आत्मघात भी निकृष्ट कार्य है। ममत्व रहित और जिनवचनों की भावना करने वालों के लिए अपने में और दूसरों में कोई अन्तर नहीं है-अत: दोनों को पीड़ा नहीं देनी चाहिए ॥४१॥ जो आप अपने को अकार्याचरण से दूषित मानते हैं, इसे भी जिनवचनों के पालन रूप जल से धोया जा सकता है, अन्य प्रकार से नहीं । जो विचार किया कि इच्छित कार्य को पूरा करूंगा, यहाँ भी संसार में भटकाने वाले कार्य को करना व्यर्थ है। जिसे पहले नहीं पालन किया है, ऐसी तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करो। वे तीर्थकर तीनों लोकों के बन्धु हैं तथा जन्म, बुढ़ापा और मरण से रहित हैं।" इसी बीच मन के अभिप्राय को प्रकट करने के कारण 'ओह ! भगवान का ज्ञान आश्चर्यकारक है' ऐसा मानता हुआ इन्हीं से ही प्रायश्चित की जानकारी प्राप्त करूंगा'--यह सोचकर आँखों में आनन्द के आँस भरकर राजा मनि के चरणों में पड़ गया। उसने भगवान मुनिवर से निवेदन किया-"भगवन् ! कहिए इसका क्या प्रायश्चित्त है ?" मुनिवर ने कहा .. "महाराज ! विरोधी का सेवन (करना ही इसका प्रायश्चित्त है) और वह निदान को छोड़े बिना नहीं होता अत: निदान को त्याग देना चाहिए । यहाँ पर निदान मिथ्यात्व मोहनीय से युक्त अज्ञान है, वह अन्यथा स्थित भावों १. "मुभये वि-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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