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________________ पजत्यो भवो] निवेइऊण जणवयाणं तओ ने तुप्पाडणकण्णनासुक्कत्तणकरचरणछेयहिं जीवियनासो' चेव इमस्स दण्डो त्ति रिसिवयणं । एवं चायण्णिऊण चितियमणेण । अहो जहन्ना रायकुलजीविया, जं ईदिसं पि अणुमन्नीयइ त्ति । ता अलं मे अणेगोवद्दवभायणेणं रज्जहेणं ति। आणंदसन्नियस्स भाइणेवस्स दाऊण रज्जं सुहम्मगुरुसमोवे पवन्नो पव्वज्ज ति । ता बंदणीओ खु एसो। एयं सोऊण ससंभंतो गओ राया मुणिवरसमीवं । वंदिओ णेण भयवं सुदत्तमुणिवरो। एत्थंतरम्मि समत्तो झाणजोगो । तओ धम्मलाहिओ णेणं भणिओ य । 'महाराय, उवविससु' त्ति । तओ 'अहो मए अकज्ज ववसिय ति अहिरजायपच्छायावो लज्जावणयवयण मलो उविट्ठो राया। चितियं च णेणं । इमस्स रिसिस्स घायओ अहं ति । एवं च पया सिऊण अत्तणो सिरच्छेयमंतरेण न पायच्छितं पेक्खामि। ता कि बहुणा; न सक्कुणोमि अकज्जारणकलंकदूसियं अत्ताणं महत्तयं पि धारेउं । अओ अलं मे इहथिएणं'; संपाडेमि जहा समीहियं ति । एत्थंतर्राम्म समप्पन्नमणपज्जवनाणाइसएण भणियं सुदत्तमुणिवरेण-महाराय, अलं ते इमिणा चितिएण । न खलु एयं एत्थ पच्छित्तं, निवेद्य जनपदानां ततो नेत्रोत्पाटन-कर्णनासोत्कर्तन-करचरणच्छेदनर्जीवितनाश एवास्थ दण्ड इति ऋषिवचनम् । एवं चाकर्ण्य चिन्तितमनेन। अहो जघन्या राजकुल जीविका यदीदृशमपि अनूमन्यते इति । ततोऽलं मेऽनेकोपद्रवभाजनेन राज्यसूखेनेति आनन्दसंज्ञिताय भागिनेयाय दत्त्वा राज्यं सुधर्मग रुसमीपे प्रपन्नः प्रव्रज्यामिति । ततो वन्दनीयः खल्वेषः । एतच्च श्रुत्वा ससम्भ्रान्तो गतो राजा मुनिवरसमीपम् । वन्दितस्तेन भगवान् सुदत्तमुनिवरः। अत्रान्तरे समाप्तो ध्यानयोगः । ततो धर्मलाभितस्तेन भणितश्च-महाराज ! उपविशति । ततोऽहो मयाऽकार्य व्यवसितम्' इति अधिकजातपश्चात्तापो लज्जावनतवदनकमल उपविष्टो राजा । चिन्तितं तेन-अस्य ऋषेर्घातकोऽहमिति । एवं च प्रकाश्यात्मनः शिरश्छेदमन्तरेण न प्रायश्चित्तं प्रेक्षे । ततः कि बहुना ? न शक्नोम्यकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानं मुहूर्तमपि धारयितुम्, अतोऽलं मे इह स्थितेन, सम्पादयामि यथा समोहितमिति। अत्रान्तरे समुत्पन्नमनःपर्ययज्ञानातिशयेन भणितं मुनिवरेण-महाराज ! अलं तेऽनेन चिन्तितेन, न खल्वेतदत्र प्रायश्चित्तं यत्त्वया परिकल्पितम् । नगरवासियों को निवेदन कर अनन्तर नेत्र निकालना, कान-नाक काटना तथा हाथ-पैर काटकर जीवन नष्ट करना ही इसका दण्ड है-ऐसा ऋषिवाक्य है। यह सुनकर राजा ने सोचा-'ओह ! राजाओं के कुल की जीविका जघन्य होती है जो कि इस प्रकार की भी अनुमति देनी पड़ती है। अत: अनेक उपद्रवों का पात्र यह राज्य-सुख व्यर्थ है ।' इस प्रकार आनन्द नामक बहनोई को राज्य देकर सुधर्म गुरु के समीप प्रविजत हो गये। अतः यह वन्दनीय हैं।" यह सुनकर घबड़ाहट से युक्त होकर राजा मुनिवर के समीप गया। उसने भगवान् सुदत्त मुनिवर की वन्दना की। इसी बीच (मुनि ने) ध्यान समाप्त किया। अनन्तर उन्होंने राजा को) धर्मलाभ दिया और कहा-"महाराज ! बैठ जाइए।"तब “ओह ! मैंने अकार्य किया है" - इस प्रकार अत्यधिक पश्चात्ताप कर लज्जा के कारण मुखकमल नीचा कर राजा बैठ गया । उसने विचार किया कि मैं इस ऋषि का घातक हूँ। इस प्रकार प्रकाशित कर अपना शिर काट डालने के अतिरिक्त अन्य कोई प्रायश्चित्त नहीं देखता हूँ । अतः अधिक कहने से क्या? अकार्य करने से दूषित मैं अपने आपको एक मुहूर्त भी धारण करने में समर्थ नहीं हूं, अतः यहाँ बैठना व्यर्थ है, इच्छित कार्य पूरा करता हूँ। इसी बीच जिन्हें मनःपयंय ज्ञान प्रकट हो गया है' ऐसे मुनिवर ने कहा-"महाराज ! १. दिट्टो सत्यम्मि इमस्स जीविपनासो चेव डण्डो-ख, २. चितिउं पयत्तो-नेमस्सपुर प्रो ठाइउँ सक्कुणोमि, रिसि"ख, ३.पेच्छामि-ख,४. इह जीविएणं-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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