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________________ ३१५ समराइज्यका स्थाओ निज्जिणंति कालकडं पि महाविसं, किमंग पुण विसलेसं ति; एवं च अणाइभवभावणाओ जीवा काऊ पावकम्मं सेविऊण तस्स पडिवक्खभूयं महाचरणपरिणामं निज्जिणंति अणेयभवजणयं पिपावकम्मं, किमंग पुण एगभवियं ति । एयं सोऊण हरिसिओ राया, भणियं च णेण । भयवं, अह कोइसो पुण एस चरणपरिणामी ति बुच्चइ ? भयवया भणियं -- सम्मन्नाणपुव्वयं तिव्वरुईए दोसनिवत्तणं ति । भणियं चजाणइ उप्पन्नरुई जइ ता दोसा नियत्तई सम्मं । इरा अपवित्तीय वि अणियत्ती चेव भावेणं ॥ ४२२ ॥ एसो अणुहवसिद्धो कम्मविगमहेऊ । राइणा चितियं - भयवं तमणुसेवंताणं न दुल्लहं सम्मन्नाणं समुप्पन्नसम्मन्नाणाण व संभवइ तिव्वरुई, तओ य सायत्तं दोसनियत्तणं । ता धन्नो अहं, जस्स मे भयवया' दंसणं जायं ति । न अप्पपुण्णा महानिहि पेच्छति । ता अलमन्नेण, भयवओ चेव आणणु चिट्ठामि त्ति चितिऊण भणियं च णेण - भयवं, उचिओ अहं सामण्णपडिवत्तीए ? भयवया प्रतीकाराः पुनः परमामृतसामर्थ्याद् निर्जयन्ति कालकूटमपि महाविषम्; मिङ्ग पुनर्विषलेशमिति एवं चानादिभवभावनातो जीवाः कृत्वा पापकर्म सेवित्वा तस्य प्रतिपक्षभूतं महाचरणपरिणाम निर्जयन्ति अनेकभवजनकमपि पापकर्म, किमङ्ग पुनरेकभविकमिति । एतत् श्रुत्वा हर्षितो राजा, भणितं च तेन - भगवन्! अथ कीदृशः पुनरेष चरणपरिणाम इत्युच्यते ? भगवता भणितम् सम्यग्ज्ञानपूर्वकं तीव्ररुच्या दोषनिवर्तनमिति । भणितं च जानात्युत्पन्न रुचिर्यदि ततो दोषान्निवर्तते सम्यक् । इतरधाऽप्रवृत्तिश्च । पि अनिवृत्तिश्चैव भावेन ॥ ४२२॥ एषोऽनुभवसिद्धः कर्मविगमहेतुः । राज्ञा चिन्तितम् - भगवन्तमनुसेवमानानां न दुर्लभं सम्यग्ज्ञानम्, समुत्पन्नसम्यग्ज्ञानानां च असंभवति तीव्ररुचिः, ततश्च स्वायत्तं दोषनिवर्तनम् । ततो धन्योऽहम्, यस्य मे भगवता दर्शनं जातमिति । न अल्पपुण्या महानिधि प्रेक्षन्ते । ततोऽलमन्येन, भगवत एवाज्ञामनुतिष्ठामीति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - भगवन् ! उचितोऽहं श्रामण्यप्रतिपत्त्या ? जीव पापकर्मों को कर उनका प्रतिकार न कर उसके फल ( रूप में) जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक को प्राप्त करते हैं । जो प्रतिकार करते हैं वे परमामृत की सामर्थ्य से कालकूट नामक महाविष को भी जीतते हैं, लेशमात्र विष की तो बात ही क्या है ? इस प्रकार अनादिकालीन जन्मों की भावनाओं से जीव पापकर्म कर उसके विरोधी महान् चारित्र रूप परिणाम का सेवन कर अनेक भवों के जनक पापकर्म पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं, एक भव की तो बात ही क्या है ?" यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा - " तीव्र रुचि से सम्यग्ज्ञानपूर्वक दोषों को दूर करना चारित्र रूप परिणाम है । कहा भी है जिसे रुचि उत्पन्न हुई है वह यदि सम्यक्रूप से जानता है तो दोषों से मुक्त हो जाता है । भावपूर्वक यदि निवृत्त नहीं होता है तो विपरीत भी प्रवृत्ति होती है ॥ ४२२ ॥ कर्म के नाश का यह कारण अनुभवसिद्ध है । राजा ने सोचा- 'भगवान् की सेवा करने वालों के लिए सम्यग्ज्ञान दुर्लभ नहीं है । जिन्हें सम्यग्ज्ञान उत्पन्न हो गया है, उनकी रुचि तीव्र होती है, उससे स्वयमेव दोष दूर होते हैं । मैं धन्य हूँ, जिसे भगवान् के दर्शन हुए। अल्प पुण्य वाले प्राणी महानिधि को नहीं देखते हैं । अतः दूसरे से कोई प्रयोजन नहीं है, भगवान की आज्ञा का पालन ही करता हूँ' - ऐसा सोचकर उसने कहा - "भगवन् ! १. एवं क, २. भयवया सह - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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