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________________ घउत्यो भयो] भणियं-महाराय, को अन्नो उचिओ ति? तओ संजायहरिसेण भणियं राइणा-अरे निवेएह मइसायरप्पमुहाणं अज्ज मंतोणं । जहा कायव्वो देवाणुप्पिएहि अभयरुइणो रज्जाभिसेओत्ति' न कायन्वो य मम संतिओ खेओ; पवज्जामि अहं भयवया सुरासुरनमिएण भुवणगुरुणा पणीयं समलिगं । जं देवो आणवेइ ति जंपिऊण गया निओगकारिणो । निवेइयं तेहिं मंतिजणवयाणं सुओ एस वुत्तंतो अंतेउरेण । तओ नेहभयसंभमेणं परिच्चइय असमाणियं आलेक्खगंधवाइ हाहारवसणाहं पयट्टमंतेउरं । अहं पि तेहितो चेव एवं वइयरमायण्णिऊण अभयमईए समेओत्ति । चलणपरिसक्कणेव पत्ता य णे नरवइसमीवं । दिट्ठो मुगिदपायमले संवेगमुवगओ राया रायपत्तीहि, किह मेइणितलासणत्थो विच्छड्डियछत्तचामराडोवो। कि होज्ज न होज्ज त्ति व सवियक्कं नरवई एसो ॥४२३॥ भगवता भणितम्-महाराज ! कोऽअन्य उचित इति ? । ततः सञ्जातहर्षेण भणितं राज्ञा-अरे निवेदयत मतिसागरप्रमुखाणामद्य मन्त्रिणाम् । यथा कर्तव्यो देवानुप्रियैरभयरुचे राज्याभिषेक इति, न कर्तव्यो मम सत्कः खेदः । प्रपद्येऽहं भगवता सुरासुरनतेन भुवनगुरुणा प्रणीतं श्रमणलिङ्गम् । यद् देव आज्ञापयति' इति जल्पित्वा गता नियोगकारिणः । निवेदितं तैर्मन्त्रिजनपदानाम् । श्रुत एष वृत्तान्तोऽन्तःपुरेण । ततः स्नेहमयसम्भ्रमेण परित्यज्यासमाप्तमालेख्यगान्धर्वादि हाहारवसनाथं प्रवृत्तमन्तःपुरम् । अहमपि तेभ्य एव एतं व्यतिकरमाकभियमत्या समेत इति । चरणपरिष्वष्कनेनैव (पादविहारेणैव) प्राप्ताश्च वयं नरपतिसमीपम् । दृष्टो मुनीन्द्रपादमूले संवेगमुपगतो राजा राजपत्नीभिः । कथम् ? मेदिनीतलासनस्थो विच्छदितछत्रचामराटोपः । किं भवेद् न भवेदिति वा सवितकं नरपतिरेषः ॥४२३॥ क्या मैं श्रामण्य (मुनिधर्म) की प्राप्ति के योग्य हूँ ?" भगवान् ने कहा--"महाराज ! दूसरा कौन योग्य है ?" तब जिसे हर्ष उत्पन्न हुआ है, ऐसे राजा ने कहा - "अरे मतिसागर आदि प्रमुख श्रेष्ठ मन्त्रियों से निवेदन करो कि देवानुप्रियों द्वारा अभयरुचि का राज्याभिषेक किया जाना चाहिए । और मेरे विषय में खेद मत करो। सुर और असुरों के द्वारा जिन्हें प्रणाम किया गया है और तीनों लोकों के जो गुरु हैं, ऐसे भगवान् के द्वारा प्रणीत श्रमणवेश को मैं धारण करता हूँ।" "जो महाराज आज्ञा दें" --ऐसा कहकर आज्ञापालन करने वाले (नियोगकारी) गये। उन्होंने मन्त्री और देशवासियों से निवेदन किया । इस वृत्तान्त को अन्तःपुर ने सुना । अनन्तर अन्तःपुर स्नेह, भय और घबडाहट के कारण बीच में ही चित्र और संगीत आदि को छोड़कर 'हा-हा' शब्द के साथ चल पड़ा। मैं भी इन्हीं से इस घटना को सुनकर अभयमति के साथ गया । पैदल चलकर ही हम लोग राजा के पास पहुंचे। मुनिश्रेष्ठ के चरणों में विरक्ति को प्राप्त हुए राजा को महारानियों ने देखा । कैसे ? (यह राजा) "क्या होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए"-इस प्रकार वितर्क करते हुए पृथ्वीतल पर बैठे थे। उन्होंने छत्र और चमर के आडम्बर का त्याग कर दिया था ॥४२३॥ १. रायाभिसेओ-क-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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