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________________ ३५० तो ताहि सपणामं समयं पक्बुभियभूसणरवणं । trafaraaरत्थो जयसद्दो से समुग्धट्टो ||४२४॥ तेण वि वेरग्गरसा अगायर विइष्ण मंथरच्छेन । उल्लोलत सिणेहं ईसि समोणामियं वयणं ॥ ४२५॥ एवं च संभासिएण सव्वंतेउरजणेण पायवडिएण विन्नत्तो नरवई । खयदाढो व्व भुयंगो कि एवं वारिनियलितगओ व । सोहो व पंजरत्थो भायति पन्भट्ठरजो व्व ॥ ४२६॥ तओ एवं विन्नत्तेण राइणा साहियं निरवसेस मुणिवयणाइयं ति । तं च णे सोऊण समुत्पन्नं जाइस्मरणं । तओ तस्संभ्रमेणे' निवडियाइ धरणिवट्टे । हा किमेयमवरं ति मन्नमाणीहि विरुइयं रायपत्तीहि । बाहजलसितगत्तं च णे उर्वारं मुच्छमुवगया अंबा । तओ लद्धाओ चेयणाओ, विउद्धार अम्हे, समासासिया अंबा, विन्नत्तो राया । ताय, अलं णे संसारकिलेसायासका रएहिं विसहि; अणुजाणाहि ततस्ताभिः सप्रणामं समकं प्रक्षुभितभूषणारवेण । अनिरूपिताक्षरार्थो जयशब्दस्तस्य समुद्धष्टः ॥ ४२४ ॥ तेनापि वैराग्यवशाद् अनादरवितीर्णमन्थराक्षेण । उल्लोलत्स्नेहमीषत् समवनामितं वदनम् ॥ ४२५।। एवं च सम्भाषितेन सर्वान्तःपुरजनेन पादपतितेन विज्ञप्तो नरपतिःक्षतदाढ इव भुजङ्गः किमेतत् वारिनिगडितगज इव । सिंह इव पञ्जरस्थो ध्यायसि प्रभ्रष्टराज्य इव ॥ ४२६ ॥ [समराइच्चकहा तत एवं विज्ञप्तेन राज्ञा कथितं निरवशेषं मुनिवचनादिकमिति । तच्चावयोः श्रुत्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । ततस्तत्सम्भ्रमेण निपतितौ धरणीपृष्ठे । 'हा किमेतदपरम्' इति मन्यमानाभिर्विरुदितं राजपत्नीभिः । बाष्पजल सिक्तगात्रं चावयोरुपरि मूर्छामुपगताऽम्बा । ततो लब्धाश्चेतनाः, विबद्धावावाम् समाश्वासिताऽम्बा, विज्ञप्तो राजा - तात! अलमावयोः संसारक्लेशायास अनन्तर महारानियों ने प्रणाम कर क्षोभित आभूषणों का शब्द करते हुए अक्षरों के अर्थ पर विचार न करते हुए, उनके जय शब्द की घोषणा की। राजा ने भी वैराग्यवश अनादर से मन्थर दृष्टि डालकर उमड़ते हुए कुछ स्नेह से मुँह नीचा कर लिया । ॥४२४-४२५।। इस प्रकार जय शब्द कहने के बाद जब समस्त अन्तःपुर के लोग पैरों में पड़ गये तो राजा ने निवेदन किया जिसकी दाढ़ें नष्ट हो गयी हैं, ऐसे साँप के समान, पानी में (कीचड़ में) जो फँस गया हो ऐसे हाथी के समान, पिंजड़े में जो बन्द हो ऐसे सिंह के समान तथा राज्य से च्युत हुए के समान इसका ( मेरा ) ध्यान करते हो ? ॥४२६ ॥ ऐसा निवेदन करने के बाद राजा ने मुनि के द्वारा कहा हुआ रामस्त वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर हम दोनों को जातिस्मरण हो गया। तब घबड़ाहट से हम दोनों पृथ्वीतल पर गिर पड़े। 'हाय ! यह क्या हुआ ऐसा मानती हुई राजपत्नियाँ रो पड़ीं। जिसका मुँह आँसुओं के जल से सिच गया था, ऐसी माता हम लोगों के ऊपर मूर्च्छा को प्राप्त हो गयी । अनन्तर चेतना प्राप्त हुई, हम दोनों जाग्रत हो गये, माता को आश्वस्त किया । १. तस्स सं ं ं ंख, 2. उडिया अख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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