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________________ पसायो भयो ३२१ ताव अम्हाणं पि सयलदुक्खविरेयणं समणत्तणं ति । राइणा भणियं-अहासुहं देवाणु प्पियाई, म पडिबंधं करेह । तओ विजयवम्मणो नियभाइणेयस्स दाऊण रज्जं काऊण अट्ठाहियामहामहिमं सयलंते उरपहाणजणसमेओ घेत्तूण अम्हे अभिणिक्खंतो राया। विन्नत्तो मए भयवं सुदत्तमुणिवरो। भयवं, करेहि' अणुग्गहं नयणावलीए धम्मकहाए; पावेउ भयवओ पभावेण एसा वि सयलदुक्ख चिगिच्छयं जिणपणीयं धम्म। भयवया भणियं-सोम, अविसओ खु एसा धम्मकहाए। संतप्पिओ इमीए अकज्जायरणापच्छासेवणाए कम्मवाही, बद्धं च तच्चपुढवीए परभवाउयं, अओ पावियल्वमवस्सं तीए नारगत्तणं, न पवज्जइ य एसा महामोहाओ जिणधम्मर रणं ति। तओ मए चितियं-अहो दारुणविवागया अकज्जायरणस्स, ईइसो एस संसारसहावो; ता कि करेमि त्ति? तओ अइसयनाणावलोयसूरेण भयवया भणियं-अलं ते इमिणा संसारविवद्धणेण तीए उरि अणुबंधेण । एयं चेव सयललोयदुलहं' कहंचि लद्धं पव्वजं करेहि त्ति । तओ गुरुगणाणुभावेणं पालियं समणत्तणं, कालमासे य सिद्धंतविहिणा सकराकविषयः, अनुजानीहि तावदावयोरपि सकलदुःखविरेचनं श्रमणत्वमिति । राज्ञा भणितमयथासुखं देवानुप्रियौ ! मा प्रतिबन्धं कुरुतम् । ततो विजयवर्मणो निजभागिनेयस्य दत्त्वा राज्य कृत्वाऽष्टाह्निकामहामहिमानं सकलान्तःपुरप्रधानजनसमेतो गृहीत्वाऽऽवामभिनिष्क्रान्तो राजा। विज्ञप्तो मया भगवान् सुदत्तमुनिवरः । भगवन् ! कुर्वनुग्रहं नयनावल्या धर्मकथया, प्राप्नोतु भगवतः प्रभावेण एषाऽपि सकलदुःखचिकित्सकं जिनप्रणीतं धर्मम् । भगवता भणितम्-सौम्य ! अविषयः खल्वेषा धर्मकथायाः । सन्तर्पितोऽनयाऽकार्याचरणापथ्यासेवनया कर्मव्याधिः, बद्धं च ततीयपथिव्याः परभवायुष्कम्, अतः प्राप्तव्यमवश्यं तया नारकत्वम्, न प्रपद्यते चैषा महामोहतो जिनधर्मरत्नमिति । ततो मया चिन्तितम्-अहो दारुणविपाकताऽकायचिरणस्य, ईदश एष संसारस्वभावः ततः किं करोमीति । ततोऽतिशयज्ञानावलोकसूरेण भगवता भणितम्-अलं तेऽनेन संसारविवर्धनेन तस्या उपर्यनबन्धेन । एतामेव सकललोकदुर्लभां कथञ्चिद् लब्धां प्रव्रज्यां कुर्विति । ततो गुरुगुणानुभवेन पालितं श्रमणत्वम् । कालमासे च सिद्धान्तविधिना कृत्वा कालमुपपन्नो सहस्राराभिधाने (और) राजा से निवेदन किया-"पिता जी! सांसारिक क्लेश और परिश्रम को करने वाले विषय हम लोगों के लिए व्यर्थ हैं, हम दोनों को भी समस्त दुःखों से छुड़ाने वाली जिनदीक्षा की आज्ञा दो।" राजा ने कहा-"आप दोनों को जो सुखकर हो, हम नहीं रोकते हैं।" तब विजयवर्मा नामक अपने बहनोई को राज्य देकर, आष्टाद्धिक महोत्सव कर, अन्तःपुर के समस्त प्रधान मनुष्यों के साथ हम दोनों को साथ लेकर राजा निकल पड़ा। मैंने भगवान सुदत्त मुनिवर से निवेदन किया-"भगवन् ! धर्मकथा के द्वारा नयनावली पर अनुग्रह करो, भगवान के प्रभाव से यह भी समस्त दुःखों के चिकित्सास्वरूप जिनोपदिष्ट धर्म को प्राप्त करे ।" भगवान ने कहा- "सौम्य ! यह धर्मकथा को ग्रहण नहीं कर सकती । इसने अकार्याचरण रूपी अपथ्य का सेवन कर कर्मरूपी व्याधि की तप्ति की और तीसरे नरक की परभव की आयु बांधी है । अतः यह अवश्य ही नरकगति को प्राप्त करेगी। महामोह के कारण यह जिन धर्मरूपी रत्न को प्राप्त नहीं हो सकती।" तब मैंने विचार किया-"ओह ! अकार्याचरण का फल' भयंकर होता है, इस संसार का स्वभाव ऐसा है, अतः क्या करूं ? अनन्तर अतिशय ज्ञानरूपी दर्शन के लिए सूर्य के समान भगवान् ने कहा-"संसार को बढ़ाने वाले उसके प्रति अशुभपरिणामों को मत करो। सारे संसार में दुर्लभ, किसी प्रकार प्राप्त हुई इस प्रवज्या को करो।" अनन्तर गुरु-गुणों के प्रभाव से मुनिधर्म का पालन किया। १. देवाणु प्पिया-ख, २. करेहि-क-ख, ३. करेह-क-ग, ४. धम्मकहा करणेण -ख, ५. ""सम्भावो-क, ६. सयल तियलोय"-क, ७. तओपावनिग्धायठाए य तो कम्मं (मि) जतो कायनों तो-ख, ८. गुरुणांणुहावेण -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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