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________________ ३८६ [समराइच्चकह तहावि न पसरईति । तओ मए चितियं - 'हा किमेयमवरं' ति जाव थेववेलाए समागओ तायबिहयहियभूओ पडिवन्नतावसवओ देवाणंदो नाम विज्जाहरो । भणियं च तेण - वच्छे मयणमंजरि, किमेयं ति । मए भणियं - भयवं, कयंतविलसियं । तेण भणियं - 'कहं विय' । मए भणियं - विवन्तो अज्जउत्त, न पहवह य नहगामिणी विज्जा । तओ बाहोल्ललोयणेण भणियं भयवया । वच्छ, अलं परिदेविएणं, ईइसो चेव एस संसारो। एवं च असारयं संसारस्स अद्ध्रुवयं जीवलोयस्स खणभंगुरयं संगमाणं चंचलयं इंदियाणं परिचितिऊण पवज्जंति पाणिणो सयलतेलोक्कपर मत्थबंधवं धम्मं । तओ मए 'एवमेयं' ति चितिऊण भणिओ - भयवं । करेहि मे अणुग्गहं वयपयाणेण । भयवया भणियं वच्छे, जुत्तमेयं, अह किं पुण ते नहगमण विज्जाभंसकारणं । मए भणियं - भयवं, न याणामि । तओ नाणावलोएण निरूवियं भयवया, भणियं च तेण वच्छे; सोयाभिभूयाए लंघियं सिद्धाययणकूडं; निवडियं च ते एयस्स चेव सिहरभाए कुसुमदामं, तन्निमित्तो ते विज्जाभंसो ति । भणि-भवं, अलमिहलोयमेत्तोवयारिणीहि विज्जाहि, करेहि मे अणुग्गहं वयपयाणेणं ति । न प्रसरतोति । ततो मया चिन्तितम् -' हा किमेतदपरम्' इति यावत् स्तोकवेलायां समागतः तातद्वितीयहृदयभूतः प्रतिपन्नतापसव्रतो देवानन्दों नाम विद्याधरः । भणितं च तेन - वत्से मदनमञ्जरि ! किमेतदिति । मया भणितम् - भगवन् ! कृतान्तविलसितम् । तेन भणितम्-'कथमिव' । मया भणितम् - विपन्नो मे आर्यपुत्रः न प्रभवति च नभोगामिनी विद्या । ततो वाष्पार्द्रलोचनेन भणितं भगवता । वत्से ! अलं परिदेवितेन, ईदृश एवैष संसारः । एतां चासारतां संसारस्य अध्रुवतां जीवलोकस्य, क्षणभङ गुरतां सङ्गमानां चञ्चलतातिन्द्रियाणां परिचिन्त्य प्रपद्यन्ते प्राणिनः सकलत्रैलोक्यपरमार्थं बान्धवं धर्मम् । ततो मया 'एवमेतद्' इति चिन्तयित्वा भणितो भगवान्कुरु मेऽनुग्रहं व्रतप्रदानेन । भगवता भणितम् - वत्से युक्तमेतद्, अथ किं पुनस्ते नभोगमन विद्या भ्रंशकारणम् ? मया भणितम् - भगवन् ! न जानामि । ततो ज्ञानावलोकेन निरूपितं भगवता, भणितं च तेन - वत्से ! शोकाभिभूतया लङ्घितं सिद्धायतनकूटम्, निपतितं च ते एतस्यैव शिखरभागे कुसुमदाम, तन्निमित्तस्ते विद्याभ्रंश इति । मया भणितम् - भगवन् ! अलमिहलोकमात्रोपकारिणीभि का स्मरण किया तो भी आगे न बढ़ सकी । तब मैंने सोचा - हाय ! अब और क्या होने वाला है ? (ऐसा सोच ही रही थी कि ) थोड़ी देर में पिता जी के दूसरे हृदय के समान देवानन्द नाम का विद्याधर, जिसने कि तापस के व्रत ग्रहण कर लिये थे, आया और उसने कहा - 'पुत्री मदनमञ्जरी ! यह क्या ?' मैंने कहा- 'भगवन् ! यम का विलास' । उसने पूछा- 'कैसे ?' मैंने कहा- 'मेरे आर्यपुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं और आकाशगामिनी विद्या समर्थ नहीं है ।' तब आंसुओं से गीले नेत्रवाले भगवान् ने कहा - 'पुत्री ! दुखी मत होओ, यह संसार ऐसा ही है । इस संसार की असारता, जीवलोक की अनित्यता, संयोगों की क्षणभंगुरता और इन्द्रियों की चंचलता का विचारकर समस्त प्राणी तीनों लोकों के यथार्थरूप से बन्धुभूत धर्म की शरण में जाते हैं ।' तब मैंने 'ऐसा ही है' ऐसा सोचकर भगवान् से कहा- 'व्रत प्रदान कर मेरे ऊपर अनुग्रह करें ।' भगवान् ने कहा - 'पुत्री, यह ठीक । पुनः तुम्हारी आकाशगामिनी विद्या के नष्ट होने का क्या कारण है ?' मैंने कहा- 'भगवन् ! नहीं जानती हूँ ।' तब ज्ञाननेत्रों से भगवान ने देखा और उन्होंने कहा - 'पुत्री ! शोक से अभिभूत होकर सिद्धायतन कूट को लांघ दिया और इसी के शिखर पर पुष्पमाला गिर पड़ी, इस कारण तुम्हारी विद्या नष्ट हो गयी।' मैंने कहा'भगवन् ! इस लोक मात्र में उपकार करने वाली विद्या से बस हो ( अर्थात् ऐसी विद्या व्यर्थ है), व्रत प्रदान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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