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________________ पंचमी भयोj ३८७ तो भयवया पुच्छिऊण तायं संसिऊण नियमायारं तवप्पभावेण आणिऊण तावसीणमुचियमवगरणं एत्थ चेव दीवम्मि दिक्खिय म्हि भयवया। अइक्कतो कोइ कालो। अन्नया य कुसुमसामिहेयनिमित्तं गया समुद्दतीरं। दिट्ठा य तत्थ जलहिजलकल्लोलनोल्लिया मियंकलेहा विय देहप्पहाए समुज्जोवयंती तमुद्देसं फलहयदुइया कन्नय ति। एवं सोऊण, भो कुमार, वियंभिओ मे पमोओ। चितियं च मए-दोसइ मणोरहपायवस्स कुसुमग्गमो । तावसीए भणियं-तओ अहं गया तमुद्देस, विट्ठा य लायण्णसम्मावाओ 'जीवई' त्ति गम्ममाणा कन्नय त्ति । अन्भुक्खिया कमंडलुपाणिएणं, उम्मिल्लियं तोए लोयणजुयं, भणिया य सा मए-वच्छे धीरा होहि । तावसी खु अहं। तओ वाहणलभरियलोयणं पणमिया तीए । ससंभमं च उवविसिऊण खिज्जियं चित्तेणं, लक्खिओ से भावो। तओ मए चितियं-अहो से महाणुभावया; भवियवमिमीए महाकुलपसूयाए त्ति। उवणीयाइं च से फलाइं। अणिच्छमाणी वि य कराविया पाणवित्ति । नीया आसमपर्व, वंसिया कुलवइणो, पणमिओ तीए-भयवं, अहिणंदिया य भगवया। विद्याभिः, कुरु मेऽनुग्रहं व्रतप्रदानेनेति । ततो भगवता पृष्ट्वा तातं शंसित्वा निजमाचारं तपः प्रभावेण आनीय तापसीनामुचितमुपकरणमत्रैव द्वीपे दीक्षिताऽस्मि भगवता। अतिक्रान्तः कोऽपि कालः। अन्यदा च कुसुमसामिधेयनिमित्तं गता समुद्रतीरम् । दृष्टा च तत्र जलधिजलकल्लोलनोदिता (प्रेरिता) मृगाङ्कलेखेव देहप्रभया समुद्योतयन्ती तमुद्देशं फलकद्वितीया कन्यकेति। एतच्छ त्वा-भोः कुमार! विज़म्भितो मे प्रमोदः । चिन्तितं च मया दृश्यते मनोरथपादपस्य कुसुमोद्गमः। तापस्या भणितम्-ततोऽहं गता तमुद्देशम, दृष्टा च लावण्यसदभावाद त गम्यमाना कन्यकति। अभ्यक्षिता कमण्डलुपानायेन, उन्मोलिततया लोचनयूगं, भणिता च सा मया-वत्से ! धीरा भव, तापसी खल्वहम् । ततो वाष्पजलभतलोचनं प्रणता तया । ससम्भ्रमं चोपविश्य खिन्नं चित्तेन, लक्षितस्तस्या भावः। ततो मया चिन्तितम-अहो तस्या महानुभावता,भवितव्यमनया महाकुलप्रसूतयेति । उपनीतानि तस्याः फलानि । मनीच्छन्त्यपि च कारिता प्राणवृत्तिम् । नीताऽऽश्रमपदम्, दशिता कुलपतये, प्रणतस्तया भगवान्, अभिनन्दिता च भगवता। कर मेरे ऊपर अनुग्रह करो।' तब भगवान् ने पिता जी से पूछकर, अपने आचारों का उपदेश देकर तप के प्रभाव से तापसियों के उचित उपकरणों को लाकर इसी द्वीप में (मुझे) दीक्षा दे दी। कुछ समय बीत गया। एक बार फूल और समिधा के लिए समुद्रतट पर गयी। वहां पर समुद्र की लहरों से प्रेरित चन्द्रमा की रेखा के समान जिसके शरीर की प्रभा थी और जो उस स्थान को उद्योतित कर रही थी, ऐसी एक कन्या को लकड़ी के टुकड़े पर देखा। यह सुनकर, हे कुमार ! मेरा हर्ष बढ़ गया। मैंने सोचा'मनोरथरूपी वृक्ष का पुष्पोद्गम (फूलों का निकलना) दिखाई दे रहा है। तापसी ने कहा-'तब मैं उस स्थान पर गयी। मैंने उस कन्या को देखा। लावण्य के सद्भाव से जाना कि वह जीवित है और कुवारी है। कमण्डलु का पानी उस पर छिड़का। उसने नेत्रयुगल खोले और तब मैंने उससे कहा-'पुत्री ! धैर्य रखो, मैं तपस्विनी हूँ।' तब आँखों में आंसू भरकर उसने मुझे प्रणाम किया। घबड़ाहट के साथ खिन्न पिस से बैठ गयी । (मैंने) उसके भावों को देखा। तब मैंने सोचा-मोह ! इस कन्या की महानुभावता, यह किसी बड़े कुल में उत्पन्न हुई होना चाहिए । उसके लिए (म) फूल लायी। इच्छा न होते हुए भी उसे आहार कराया। (पश्चात् उसे) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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