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________________ ३६५ पंचमो भवो] ज भयवई आगवेइ' ति भणिऊण पमज्जियं धरणिवठें। उवविट्ठा तावसी अहयं च । भणियं च तीए-कुमार, सुण- अस्थि इहेव भारहे वासे वेयड्ढो नाम पवओ। तत्थ गंधसमिद्धं नाम विज्जाहरपुर । ताथ सहस्सबलाभिहाणो राया होत्था, सुप्पमा से भारिया, तागं सुया अहं मयगजरो नाम । संपत्तजोव्वणा परिणीया विलासउरनयरसामिणो विज्जाहररिद स पुत्तेणं पव गगइणा। अइक्कतो य कोइ कालो विसयसुहमणुहवंताण। अन्नया य आग सजाणेणं याई नंदणवणं. पवत्ताई कोलि विचितकीलाहिं, जाव अयंडम्मि चेव निवडिओ कणयसिलासण ओ पवणगई, अणाचिक्खियपओयणं च सम्मिल्लियं तेण विणिज्जियकंदो दलसोहं लोयणजुयं पंपिया सिरोहरा, पव्वायं वयण कमलं । तओ असारयाए जीवलोयस्स पेच्छमाणीए चेद सो पंचसमगओ ति। तओ अहं अगाहा यि गहिया महासोएण, सोगाइरेयो य सारसी बिय अणिशरियं परिभमंती सहसा चेव निवडिया धरणिवठे, लद्धचेयणा य उप्पइउमारद्धा जाव न पसरइ मे गई । तओ सुमरिया नहंगणगामिणी विज्जा याज्ञापयति' इति भणित्वा प्रमाणितं धरणोपृष्ठम् । उपविष्टा तापसो अहं च। भणितं तयाकुमार ! शृणु अस्ति इहैव भारते वर्षे वैताढ्यो नाम पर्वतः । तत्र गन्धसमद्धं नाम विद्याधरपुरम । तत्र सहस्रवलाभिधानो राजाऽभवत । सुप्रभा तस्या भार्या । तयोः सुताऽह मदनमञ्जर । सम्प्राप्तयौवना परिणोता विलासपुरनगरस्वामिनो विद्याधरनरेन्द्रस्य पुत्रेण पवनगतिना। अतिक्रान्तश्च कोऽपि कालो विषयसुखमनुभवतः । अन्यदा चाकाशयानेन गतौ नन्दनवनम् । प्रवृत्तौ कोडितं विचित्रक्रीडाभिः, यावदकाण्डे एव निपतितः कनकशिलाऽऽसनात् पवनगतिः । अनाख्यातप्रयोजनं च सम्मिलितं तेन विनिजितकमलदलशोभं लोचन युगम्, प्रकम्पिता शिरोधरा, म्लानं वदनकमलम् । ततोऽसारतया जीवलोकस्य प्रेक्षमाणायामेव स पञ्चत्वमुपगत इति । ततोऽहमनाथेव गृहीता महाशोकेन । शोकातिरेकतश्च सारसोव अनिवारितं परिभ्रमन्तो सहसैव निपतिता धरणीपष्ठे । लब्धचेतना च उत्पतितुमारब्धा यावद न प्रसरति मे गतिः । ततः स्मता नभोऽङ्गगगामिनी विद्या, तथाऽपि बातचीत करनी है।' तब मैंने- 'भगवती जैसी आज्ञा दें-कहकर धरती साफ की। तापसी बैठ गयी और मैं भी बैठ गया । तपस्विनी ने कहा---'कुमार ! सुनो-- इसी भारतवर्ष में वैताढ्य नाम का पवंत है । वहाँ गन्धसमृदः नाम का विद्याधर नगर है। वहां सहस्रबल नाम का राजा हुआ है । उसकी पत्नी सुभा है । उन दोनों की मैं पदनमञ्जरी नाम की पुत्री हूँ। यौवनावस्था प्राप्त होने पर मेरा विवाह विलासपुर नगर के स्वामी विद्याधरराज के पुत्र पवनगति से हुआ। विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार विमान से हम दोनों नन्दनवन गये । जब नाना प्रकार के हेल खेलने लगे तब असमय में ही स्वर्णशिला के आसन से पवनगति गिर पड़ा। प्रयोजन को बिना कहे ही कमलपत्र की शोभा को जीतने वाले उसके नेत्रयुगल बन्द हो गये। गर्दन काँप उठी, मुखकमल फीका हो गया । तब संसार की असारता से देखते-देखते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब अनाथ के समान मुझे बहुत ज्यादा शोक ने ग्रहण कर लिया। शोकातिरेक से न रोकी गयी सारसी के समान घूमती हुई सहसा धरती पर गिर पड़ी। होश आने पर ऊपर जाना प्रारम्भ किया, किन्तु गति नहीं हुई। तब आकाश रूपी आंगन में चलने वाली विद्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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