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________________ ४२६ [समराइचकहा जाणइ ति। विहसियं चंडसोहेण, उन्नाडियं पिंगलगंधारेण, पयंपियंमयंगेण, नीससियं अमयप्पहेण, पचलियं देवोसहेण । तओ सुभडभावेण वीरेक्करसाणं अणभिमओ विविज्जाहराणं 'एस द्विइत्ति पडिबोहिऊण ते पवणगई चेव विसज्जिओ दूओ त्ति । भणिओ य एसो -भद्द, वत्तवो तए स विज्जाहरनरिंदो । जं खलु अयसस्स कारयं अत्तणो हारयं धिईए वारयं लोयस्स हासयं सत्तुणो आणंदयं उभयलोयविरुद्धं च, तं कहं सप्पुरिसो समाय रइ। विरुद्धं च परदारहरणं । ता परिच्चय एवं असव्ववसायं, पेसेहि मे जायं ति। अपडिवज्जमाणे य वत्तन्वा तए देवी, जहा 'नकायवो तए खेओ, उवलद्धा तुमं ति; अवस्सं थोवदिणभंतरे मोयावेमि'। तओ 'जं देवो आणवेइति भणिऊण गओ पवणगई। बिइयदियहे य आगओ। भणियं च तेण-देव, भणिओ जहाइट देवेण सो विज्जाहराहमो। न पडिवन्नं च देवसातणं । भणियं च तेण-कहं धरणिगोयरो वि मे 'परिच्चय एयं असव्ववसायं' ति आणं पेसेड। तान पेसेमि से जायं। साहेऊ जस्स साहियव्वं ति। देवीए य विन्नत्तं। अज्ज उत्तस्स घरिणिसदं वहंतीए को महं खेओ त्ति । तओ एवं सोऊण खुहिया विज्जाहरभडा। गरुयवियंभसम्पन्नमभिलषितम् । वायुमित्रेण भणितम्-देवो जानातीति । विहसितं चण्डसिंहेन, उन्नाटितं पिङ्गल गान्धारेण, प्रकम्पितं मतङ्गेन, निःश्वसितममृतप्रभेण, प्रचलितं देवर्षभेण । ततः सुभटभावेन वोरैकरसानामनभिमतोऽपि विद्याधराणाम् ‘एषा स्थितिः' इति प्रतिबोध्य तान् पवनगतिरेव विजितो दूत इति । भणितश्चैषः - भद्र ! वक्तव्यस्त्वया स विद्याधरनरेन्द्रः। यत् खल्वयशसः कारकमात्मनो हारकं धृत्या वारकं लोकस्य हासकं शत्रोरानन्दकमुभयलोकविरुद्धं च, तत्कथं सत्पुरुषः समाचरति । विरुद्धं च परदारहरणम् । ततः परित्यजैतमसद्व्यवसायम्, प्रेषय मे जायामिति । अप्रतिपद्यमाने च वक्तव्या त्वया देवी, 'यथा न कर्तव्यस्त्वया खेदः, उपलब्धा त्वमिति, वश्यं स्तोकदिनाभ्यन्तरे मोचयामि' । ततो 'यद् देव आज्ञापयति' इति भणित्वा गतः पवनगतिः । द्वितीयदिवसे चागतः । भणितं च तेन-देव ! भणितो यथादिष्ट देवेन स विद्याधराधमः । न प्रतिपन्नं च देवशासनम् । भणितं च तेन, कथं धरणीगोचरोऽपि मे परित्यजैतमसयवसायम्' इति आज्ञां प्रेषयति । ततो न प्रेषयामि तस्य जायाम् । कथयतु यस्य कथयितव्यमिति । देव्या च चण्डसिंह हंसा, पिंगलगान्धार ने हर्षद्योतक आवाज की, मातंग काँपा, अमृतप्रभ ने लम्बी सांस ली, देवर्षभ हिल गया। अनन्तर सभट होने के कारण वीरों की एक राय न होने पर भी 'विद्याधरों की यह स्थिति है' इस प्रकार उन्हें प्रतिबोधित कर पवनगति को ही दूत के रूप में भेजा। इससे कहा-'भद्र ! उस विद्याधर राजा से कहना कि अयशकारी, अपने को हटाने वाले, धैर्य से रोके जाने वाले, लोगों द्वारा हँसी किये जाने वाले, शत्रु को आनन्द देने वाले, दोनों लोकों के विरुद्ध आचरण को सज्जन पुरुष कैसे करते हैं और परस्त्री का हरण करना विरुद्ध है। अत: इस असत्कार्य को छोड़ो, मेरी पत्नी को भेज दो। न प्राप्त होने पर तुम देवी से कहना कि खेद नहीं करें, तुम मिल गयी हो, अवश्य ही कुछ दिन में छड़ा लूगा । तब 'जो महाराज आज्ञा दें'-ऐसा कहकर पवनगति चला गया और दूसरे दिन (लौट) आया। पवनगति ने कहा ---'महाराज ! उस विद्याधराधम से जैसा महाराज ने कहा था, वैसा कहा किन्तु (उसने) महाराज की आज्ञा नहीं मानी और उसने कहा-कैसे भूमिगोचरी होने पर भी इस असत्कार्य को छोड़ो-ऐसी आज्ञा भेजता है। अतः उसकी पत्नी नहीं भेजूगा। जो कुछ कहना हो, कहें ।' देवी ने कहा है कि 'आर्यपुत्र की गृहिणी' शब्द को धारण करते हुए मुझे क्या खेद है ? अनन्तर १. न चलियं-क । २. कारणं-ख । ३. परसागपणं किं पुण हरणं पि-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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