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________________ ४२७ पंचमो भवो ] माणामरिसविसेसेण हुंकारियं बंभवत्तेण, रणरसुच्छाह पुलइएण अप्फालिओ भुओ समरसेणेण, रोसरज्जंतनयणतारया भिउडीविसेसभीसणा खग्गरयणम्मि निवाइया दिट्ठी वाउवेगेण, रिउपहारविसमं उन्नामियं वच्छत्थलं वाउमित्तेण, कोवाणलज लिएणं पिव अंधारियं मुहं चंडसीहेणं, उव्वेल्लिउद्धबाहुजुयलं वियंभियं पिंगलगंधारेण, पर्यं पयमहिहरं समाहयं धरणियलं मयंगण, आसन्नसमर परिआ सफुरियनयणमुहेण आससियं अमियप्पण, नीसेसभरियगिरिगुहाकंदरं हसियं देवोसहेणं । तओ मए भणियंआसन्नविणिवाओ पणट्ठबुद्धिविहवो य सो तवस्सी' । ता अलं तम्मि संरंभेण । चिट्ठह तुम्भे । अहं पुण खग्गदुइओ' चेव इओ गच्छिऊण दंसेमि से भूमिगोयरपरक्कमं ति । विज्जाहरेहि भणियंदेव, असमत्यो खु सो देवस्स भिच्चपरक्कमं पि पेक्खिउं, किमंग पुण' देवपरक्कम ति । एत्थंतरम्मि मिलियं विज्जाहरबलं । उवणीयं मे विमाणं, अजियबलपवत्तिओ उवारूढो वसुविज्ञप्तम्–आर्यपुत्रस्य गृहिणीशब्दं वहन्त्याः को मम खेद इति । तत एतच्छ्र ुत्वा क्षुब्धा विद्याधरभटाः । गुरुविजृम्भमाणामर्षविशेषेण हुङ्कारितं ब्रह्मदत्तेन, रणरसोत्साहपुलकितेनास्फालितो भुजः समरसेनेन, रोषरज्यमाननयनतारका भृकुटिविशेषभीषणा खड्गरत्ने निपातिता दृष्टिर्वायुवेगेन, रिपुप्रहारविषममुन्नामितं वक्षःस्थलं वायुमित्रेण, कोपानलज्वलितेनेवान्धकारितं मुखं चण्डसिन, उद्वेलितोर्ध्वबाहुयुगलं विजृम्भितं पिङ्गलगान्धारेण, प्रकम्पितमहीधरं समाहतं धरणीतलं मतङ्गन, आसन्नसमरपरितोषस्फुरितनयनमुखेन । श्वसितममृतप्रभेण, निःशेषभृतगिरिगुहाकन्दरं हसितं देवर्षभेण । ततो मया भणितम् - - आसन्नविनिपातः प्रनष्टबुद्धिविभवश्च स तपस्वी । ततोऽलं तस्मिन् संरम्भेण । तिष्ठत यूयम् । अहं पुनः खड्गद्वितीय एव इतो गत्वा दर्शयामि तस्मै भूमिगोचरपराक्रम - मिति । विद्याधरैर्भणितम् - देव! असमर्थः खलु स देवस्य भृत्यपराक्रममपि प्रेक्षित् किमङ्ग पुनर्देवपराक्रममिति । अत्रान्तरे मिलितं विद्याधरबलम् । उपनीतं मे विमानम्, अजितबलाप्रवर्तित उपारूढो वसु इसे सुनकर विद्याधर योद्धा क्षुब्ध हो गये । जिसे अत्यधिक क्रोध उत्पन्न हुआ है, ऐसे ब्रह्मदत्त ने हुंकार की । समरसेन ने रण के उत्साह से पुलकित होकर भुजाएँ हिलायीं, रोष से जिसके नेत्रों की पुतलियाँ लाल हो गयी थीं ऐसे वायुवेग ने भौंह विशेष से भीषण होकर खड्गरत्न पर दृष्टि डाली । शत्रुओं के ऊपर प्रहार करने में जो प्रचण्ड था ऐसे वायुमित्र ने वक्षःस्थल ऊँचा किया । क्रोधरूपी अग्नि से जले हुए के समान चण्डसिंह ने मुँह को अन्धकारित किया, भुजायुगल को उछालकर पिंगलगान्धार ने जँभाई ली । पर्वतों को कँपाते हुए मतंग ने पृथ्वी पर चोट पहुँचायी । समीपवर्ती युद्ध के सन्तोष से जिसके नेत्र और मुँह स्फुरित हो रहे थे, ऐसे अमृतप्रभ ने आश्वासन दिया । समस्त पर्वत, गुफाओं और कन्दराओं को देवर्षभ ने हँसी से भर दिया। तब मैंने कहा - 'उस बेचारे का मरण समीप है और ( उसका ) बुद्धि तथा वैभव नष्ट हो गया है । अत: क्रोध करना व्यर्थ है । आप सब लोग ठहरो । मैं तलवार के साथ ही यहाँ से जाकर उसे भूमिगोचरी का पराक्रम दिखलाऊँगा ।' विद्याधरों ने कहा -- 'वह महाराज के भूत्य (सेवक ) के भी पराक्रम को देखने ( सहने) में असमर्थ है, महाराज के पराक्रम का तो कहना ही क्या ?" इसी बीच विद्याधरों की सेना आ मिली । मेरा विमान लाया गया । अजितबला विद्या के द्वारा चलाये १. रिवु ख। २. उन्नाडिय - ख । ३. वसीओ क । ४. दुतिम्रोख । ५. पेच्छिउं । ६. कि पुण ७. उवणयंत्र । ८. पवत्तियं उ-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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