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________________ वीमो भवो] १२१ जायाणि य पत्तेयं हत्थगोयराणि हवंति। अन्नया य मम हत्थे पाहेयं तस्स दविणजायं ति। एवमणुगच्छमाणा पत्ता तमुद्देसं, जत्थ सा चंदकंता चिट्ठइ । दिट्ठो य सो कूवो । एत्थंसरम्मि य अत्थमिओ सहस्सरस्सी, लुलिया संझा । तओ चितियमणहगेणं- हत्थगयं मे दविणजायं, विजणं च कंतारं, समासन्नो य पायालगंभीरो कवो, पवत्तीय अवराहविवरसमच्छायगो अंधारो। ता एयम्मि एवं पक्खिविऊण नियत्तामो इमस्स थाणस्स त्ति चितिऊण भणियं च तेण-सत्थवाहपुत्त ! धणियं पिवासाभिभूओ म्हि। ता निहालेहि एवं जिण्णकवं "किमेत्थ उदगं अत्थि, नत्थि' त्ति ?' तओ मए गहियपाहेयपोटलेणं चेव निहालिओ कवो। एत्थंतरम्मि य सविसत्थहिययस्स लोयस्स विय मच्च आगओ मम समीवमणगो। सहसा पक्खित्तो तमिम अहमणगेण. पडिओय उदर यसो तओ विभागाओ। अहमवि य ससंभंतो लग्गो पडिकवगेक्कदेसे। परामदाय भय चंदकंता थीसहावओ भयकायरा । भणियं च तीए 'नमो अरिहंताणं'ति । तओ मए पच्चभिन्नाओ सद्दो। ऊससियं मे हियएणं । भणिया य सा 'अभयमभयं जिणसासरयाणं" ति। तीए वि य पंच जातानि च प्रत्येक हस्तगोचराणि भवन्ति । अन्यदा च मम हस्ते पाथेयं तस्य द्रविणजातमिति । एवमनुगच्छन्तौ प्राप्ती तमद्देशम्, यत्र सा चन्द्रकान्ता तिष्ठति । दृष्टश्च स कूपः । अत्रान्तरे च अस्तमितः सहस्ररश्मिः, लुलिता सन्ध्या । ततश्चिन्तितमणहकेन-हस्तगतं मे द्रविणजातम्, विजनं च कान्तारम्, समासन्नश्च पातालगम्भीरः कपः, प्रवृत्तश्चापराधविवरसमाच्छादकोऽन्धकारः। तत एतस्मिन एतं प्रक्षिप्य निवतस्मात्स्थानादिति चिन्तयित्वा भणितं च तेन-सार्थवाहपत्र ! भशं पिपासाऽभिभूतोऽस्मि, ततो निभालय एतं जीर्णकपं 'किमत्र उदकमस्ति, नास्ति' इति ? ततो मया गहीतपाथेयपोट्टलकेनैव निभालितः कपः । अत्रान्तरे च सुविश्वस्तहृदयस्य लोकस्येव मृत्युरागतो मम समीपमणहकः । सहसा प्रक्षिप्तस्तस्मिन्नहमणहकेन, पतितश्चोदकमध्ये । निवत्तश्च स ततो विभागात्। अहमपि च सम्भ्रान्तो लग्नो प्रतिकपकैकदेशे । परामृष्टा च भयविह्वलाङ्गी चन्द्रकान्ता, स्रीस्वभावतो भयकातरा । भणितं च तया 'नमोऽर्हद्भ्यः' इति । तत प्रत्यभिज्ञातः शब्दः, उच्छवसितं मे हृदयेन । भणिता च सा 'अभयमभयं जिनशासनरतानाम्' इति । तयाऽपि च प्रत्यभि था। इस प्रकार जाते हुए उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ पर चन्द्रकान्ता बैठी थी। वह कुआँ दिखलाई पड़ा। इसी बीच सूर्य अस्त हो गया । सन्ध्या हो गयी। तब अनधक ने सोचा - 'मेरे हाथ में धन है और वन निर्जन है, समीप में ही पाताल के समान गहरा कुआं है और अपराध रूपी छिद्र को ढाँकने वाला अन्धकार हो गया है अतः इसमें इसे डालकर इस स्थान से निकल जाऊँगा'-ऐसा सोचकर उसने कहा, “वणिक्पुत्र ! मुझे बहुत प्यास लगी है, अतः इस जीर्ण कुएँ में देखिए, पानी है अथवा नहीं ।" तब पोटली में रखे हुए नाश्ते को लेकर ही मैंने कुएँ में देखा। इसी बीच विश्वस्त हृदय वाले व्यक्ति के पास जैसे मौत आती है, उसी प्रकार अनधक मेरे समीप आया। यकायक अनघक ने मुझे उसमें गिरा दिया और मैं जल के बीच जा गिरा । वह उस स्थान से चला गया। मैं भी घबड़ाकर कुएं के एक किनारे आ लगा। स्त्री स्वभाव के कारण भय से दुःखी एवं भय के कारण जिसके अंग विह्वल हो रहे थे, ऐसी चन्द्रकान्ता को छू गया। उसने कहा, "अर्हन्तों को नमस्कार हो।" तब शब्द पहचान कर मैंने हृदय से लम्बी सांस ली और कहा, "जिन-शासन में रत रहने वाले लोगों के लिए अभय है।" उसने भी मेरी आवाज पहचान ली। वह रोने लगी, मैंने उसे ढाढस बंधाया और वृत्तान्त पूछा। उसने कहा । १,.सासणरयाणं-च। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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