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________________ १२२ [समराइच्चकहा 'भिन्नाओ मे सद्दो । रोविउं पयत्ता समासासिया सा मए, पुच्छ्यिाय वुत्तंतं । साहिओ य तीए, भए वि य नियगो त्ति । भणियं च तीए-हा ! दुठ्ठ कयं अणहगेण । मए भणियं-सुंदरि ! न दुठ्ठ कयं, परमोवयारी ख सो महाणभावो, जं तुमं संजोइय त्ति । अप्पनिहाण य अइक्कंता रयणी, उग्गओ अंसुमाली। तओ मए दिन्नं चंद कंताए पाहेयं । भणियं च तीए-'कहमहं तुमए अगहियम्मि गेण्हामि' ति । तओ मए नेहकायरं से हिययं कलिऊणमकाले चेव गहियं पाहेयं, भुत्तं च अम्हेहि । तओ चितियं मए-केण पुण उवाएण अहे इमाओ भवसमुद्दाओ विव कूवगाओ उत्तरिस्सामो ति । एवं च चितयंताणं कइवयदिणेसु खीणं पाहेयं, पणट्ठा जीवियासा। जाया य मे चिंता-कहं पाविऊण जिणमयं अकाऊण पव्वज्जमकयस्थो मरिस्सामि ति । एत्थंतरम्मि फरियं से वामलोयणेणं, ममावि दाहिणेणं । जंपियं च तीए-'अज्जपुत्त ! वामं मे लोयणं फुरियं' ति । तओ साहिओ से मए हिययसंकप्पो इयरचक्ख फरणं च समासासिया य एसा। संदरि ! इमेहि निमित्तविसेसेहि अवस्स अम्हाणं न चिरकालाणुसारी एस किलेसो, ता न तुमए संतप्पियव्वं ति। पडिस्सुयमिमीए। एवं च जाव ज्ञातो मम शब्दः ! रोदितुप्रवृत्ता, समाश्वासिता सा मया, पृष्टा च वृत्तान्तम् । कथितश्च तथा, मयाऽपि च निजक (वृत्तान्तः कथितः) इति । भणितं च तया-हा ! दुष्ठ कृतमणहकेन । मया भणितम्सुन्दरि ! न दुष्ठ कृतम्, परमोपकारी खलु स महानुभावः, यत्त्वं संयोजिता इति । अल्पनिद्रयोश्चातिक्रान्ता रजनी. उदगतश्चांशमाली। ततो मयादत्तं चन्द्रकान्तायाः पाथेयम भणितं च तया-कथमई त्वय्यगहीते गृह्णामि' इति । ततो मया स्नेहकातरं तस्या हृदयं कलयित्वा अकाले एव गृहीतं पाथेयम्, भुक्तं चावाभ्याम् । ततश्चिन्तितं मया-केन पुनरुपायेन वयमस्माद् भवसमुद्रादिव कूपकादुत्तरिष्याव इति । एवं च चिन्तयतो: कतिपयदिनेषु क्षीणं पाथेयम्, प्रनष्टा जीविताशा । जाता च मे चिन्ता-- कथं प्राप्य जिनमतमकृत्वा प्रव्रज्यामकृतार्थो मरिष्यामि इति । अत्रान्तरे स्फुरितं तस्या वामलोचनेन, ममापि दक्षिणेन । कथितं च तया- 'आर्यपुत्र ! वामं मे लोचनं स्फुरितम्' इति । ततः कथितः तस्या मया हृदयसंकल्प इतरचक्षःस्फरणं च । समाश्वासिता च एषा--सुन्दरि ! एभिनिमित्तविशेषरवश्यमावयोर्न चिरकालानुसारी एषः क्लेश:, ततो न त्वया सन्तप्तव्यमिति । प्रतिश्रुतमनया । एवं मैंने भी अपना वृत्तान्त कहा । उसने कहा, "हाय ! अनधक ने बुरा किया।" मैंने कहा, "सुन्दरि ! बुरा नहीं किया, वह महानुभाव परम उपकारी है जिसने कि तुमसे मिलाया।" अल्प निद्रा वाले हम दोनों की रात्रि बीत गयी। सूर्योदय हो गया । तब मैंने चन्द्रकान्ता को नाश्ता दिया। तब उसने कहा, “यदि आप नहीं लेते हैं तो मैं कैसे ले सकती हूँ।" तब मैंने स्नेह से दुःखी उसके हृदय को मानकर असमय में ही नाश्ता ले लिया। हम दोनों ने खाया। तब मैंने सोचा--- किस उपाय से भवसागर के समान इस कूप से निकलें। इस प्रकार कुछ दिन विचार करते हुए नाश्ता समाप्त हो गया। जीने की आशा नष्ट हो गयी। मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई कि जैन धर्म को पाकर बिना दीक्षा लिये कैसे अकृतार्थ होकर मरूंगा। इसी बीच उसकी बायीं आँख और मेरी दायीं आँख फड़की। उसने कहा, 'आर्यपुत्र ! मेरी बायीं आंख फड़की है।" तब मैंने उसके हृदय का संकल्प और दायीं आंख का फड़कना कहा। उसे मैंने आश्वासन दिया, "सुन्दरि ! इस विशेष निमित्त के कारण हम लोगों का यह क्लेश चिरकाल तक रहने वाला नहीं है। अतः तुम दुःखी मत होओ।" उसने स्वीकार किया। इस प्रकार जब एक दिन-रात १. पश्चाभिण्णाओ-च. २. पउत्ता-च, ३. पुच्छिआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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