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भूमिका ]
दोनों राजकन्याओं ने कहा कि रति बुद्धिरहित है जो कि अपनी परतन्त्रता और भावी फल को नहीं देखती है। इसी प्रकार राजकन्याओं का भी मेरे प्रति अनुराग नहीं है, जो कि मुझे अहित में प्रयुक्त कर रही हैं। यह सुनकर दोनों बधुएं उद्विग्न हुई, विशुद्ध भावना उत्पन्न हुई, कर्मराशि नष्ट हो गयी, एकदेश-चरित्र प्राप्त हुआ। दोनों ने जीवन के लिए विषय-भोग छोड़ दिये। कुमार ने भी जीवन के लिए ब्रह्मचर्य अंगीकार कर लिया।
इसी बीच वहाँ सुदर्शना नामक देवी आयी। राजा को उसने अपना परिचय दिया और बतलाया कि तुम्हारे पुत्र के गुणों की अनुरागी होकर मैं यहाँ निवास करती हूँ । अनन्तर राजा और महारानी कुमार के पास गये। राजा ने कहा-कुमार ! तुमने कठिन कार्य किया। कुमार ने पिता जी को भली-भाँति समझाया ।
इसी बीच समीप में ही पुरन्दरभट्ट के घर चिल्लाहट उठी, भीड़ इकट्ठी हो गयी । राजा ने कहा - अरे पता लगाओ, यह क्या है ? कुमार ने कहा--पिता जी ! संसार का खेल है। पुरन्दरभट्ट अभी अधमरा है, अतः उसके घर में चिल्लाहट हो रही है। अपनी नर्मदा नामक पत्नी द्वारा विष के प्रयोग से यह अधमरा है, अत: विष को नष्ट करने में समर्थ वैद्यों को भेजिए, अनन्तर औषधि के प्रयोग से जीवत हो जायगा। दूसरी बात यह है कि उसी घर की गली के दक्षिण पश्चिम भाग में इसी विष के प्रयोग से उसने कुत्ते को मारा है, उसके लिए भी यही औषधि के नियम का प्रयोग करना चाहिए, वह भी इससे जीवित हो जायगा। राजा ने कहने के अनुसार आदेश देकर बैद्य भेजे तथा कुमार से पूछा कि नर्मदा के असत्कार्य का क्या कारण है ? कुमार ने सारी कहानी कह सुनायी। यह सुनकर राजा उद्विग्न हुआ।
इसी बीच प्रातःकालीन सूर्य के समान नगरी को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश फैला, नगाड़े बजे, कल्पवृक्षों की सुगन्धि फैली और हर्षविशेष बढ़ा। पिता के पूछने पर कुमार ने कहा-यह गुणधर्म सेठ का पुत्र जिनधर्म नाम का श्रेष्ठिकुमार आज ही देवत्व को प्राप्त हो गया । मित्र और पत्नी को प्रतिबोधित करने के लिए यहाँ आया था। उन सभी को प्रतिबोधित किया। अनन्तर स्वर्गगमन करते समय इन्हें ऋद्धियाँ दिखलाने के लिए ऊपर गया है। राजा ने कहा-यह कैसे आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ? कुमार ने उसकी भी कथा विस्तृत रूप से सुनायी। यह सुनकर राजा संसार से भयभीत हुआ। कुमार ने राजा तथा अन्य जनों के साथ पुष्पकदण्डक उद्यान में चार ज्ञान के धारक प्रभासाचार्य के पादमूल में सिद्धान्तविधि से दीक्षा प्राप्त की।
इस घटना से गिरिषेण दुःखी हुआ। उसने सोचा- ओह ! लोगों की मूढ़ता, जो इस अविद्वान् राजपुत्र का इस प्रकार सम्मान करते हैं, इनके सम्मान के पात्र को दूर करता हूँ। इस दुराचारी को मारता हूँ। इस प्रकार वह उसके छिद्रान्वेषण में लग गया।
एक बार समरादित्य मुनि अयोध्यापुरी आये । वहाँ साधु और श्रावकों के साथ शक्रावतार नामक चैत्य पर गये । वहाँ समरादित्य मुनि ने भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा की भावपूर्वक वन्दना की। वहाँ पर चारण मुनि, विद्याधर और सिद्ध आये। मुनि समरादित्य का आगमन जानकर अयोध्या नगरी का स्वामी प्रसन्नचन्द्र परिजनों के साथ आया। उसने धर्म विषयक अनेक प्रश्न समरादित्य से पूछे। अन्य लोगों ने भी प्रश्न किये । उन सबका यथोचित समाधान समरादित्य मुनि से प्राप्त कर सभी सन्तुष्ट हुए ।
इस प्रकार अनेक देशों में सफल विहार करते हुए कुछ समय बीता। एक बार अवन्ती जनपद में पधारे। विशिष्ट योग की आराधना के लिए एक सन्निवेश के समीप शून्य अशोक उद्यान में समरादित्य वाचक प्रतिमा योग से चिन्तन में तल्लीन होकर स्थित हो गये । बुरे कर्मों से युक्त गिरिषेण ने देखा और
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