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[ समराइच्चकहा अवसर प्राप्त कर शीघ्र ही कहीं से पुराने कपड़े लाकर लपेट दिये और तेल सींच कर आग लगा दी। भगवान् समरादित्य ध्यान-रूपी अग्नि से कर्मेन्धन जलाकर परमज्ञान में स्थित हो केवलज्ञानी हो गये। इसी बीच भगवान् के प्रभाव से समीपवर्ती आसन हिलने पर अवधिज्ञान से जानकर, फूलों का गुच्छ लेकर वेलन्धर आया । उसने भगवान् को प्रणाम किया, फूलों का वर्षा की तथा आग बुझायी । गिरिषेण इस घटना से क्षुब्ध हुआ। इसी बीच समीपवर्ती मुनिचन्द्र राजा; नर्मदा प्रमुख महारानियाँ और महासामन्त आये। भगवान् का केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिए ऐरावत हाथी पर सवार हो इन्द्र देवों सहित आया। इसी बीच 'ओह इसकी महानुभावता, मैंने बुरा किया'--ऐसा सोचकर शुभ पक्ष का बीज फेंककर गिरिसेन चाण्डाल निकल गया । मुनिचन्द्र ने भगवान् से अधम पुरुष के उपसर्ग करने का कारण पूछा । भगवान् समरादित्य ने सारी कथा सुना दी । यह सुनकर राजा, महारानियाँ और सामन्त विरक्त हो गये। भगवान ने धर्मकथा प्रस्तुत की । अनन्तर वे केवलीगमन से विहार कर गये।
कुछ समय बीत गया। एक बार चोरी की घटना से उज्जयिनी में गिरिसेन चाण्डाल पकड़ा गया, कुम्हार के आँवे में डालकर मार दिया गया । उस प्रकार के भगवान् के प्रति द्वेष के कारण वह सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। भगवान् ने योगी की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त किया और समस्त कर्मों का नाश कर सिद्धगति प्राप्त की। देवों ने उनके शरीर की पूजा की।
समराइच्चकहा की भाषा और शैली
समराइच्चकहा प्राकृत में लिखी गयी है, उसमें जैन महाराष्ट्री का प्रभाव पाया जाता है, यद्यपि अनेक जगह शौरसेनी है।' डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री के कथनानुसार, समराइच्चकहा में जैन महाराष्ट्री में शौरसेनी का पुट देकर एक नया संयोग उपस्थित किया है । गुणसेन और अग्निशर्मा नामक दो परस्पर विरोधी गणों वाले व्यक्तियों के अनेक जन्मों की कहानी का समराइच्चकहा में सुन्दर गुम्फन है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी उर्वर कल्पना से पूर्वाचार्यों द्वारा कही गयी कथा में कई अनेक अवान्तर कहानियाँ जोड़कर कथाविन्यास का आकर्षक स्वरूप रखा है, जिससे समराइच्चकहा को प्राकृत गद्यकाव्य की मूर्धन्य कृतियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।
यह गद्य-ग्रन्थ होते हुए भी ऐसा रसपूर्ण एवं अलंकारयुक्त काव्य है कि पद्य-रचना से अधिक आनन्द प्रदान करता है । हरिभद्र ने स्वयं विहार करते हुए एवं पुराने आचार्यों की कृतियों को हृदयंगम करते हुए जो ज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा वनों, नगरों, सेना, शिविरों, राज-प्रासादों, ऋषि-आश्रमों आदि का बड़ा यथार्थ और सूक्ष्म वर्णन किया है । इस काव्य में शान्तरस की प्रधानता है, यद्यपि गौण रूप में शृगार, वीर. रौद्र और भयानक रस का भी निरूपण हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने संसार से अत्यन्त निर्वेद दिखलाकर अथवा तत्त्वज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष प्रकट कर शान्त रस की प्रतीति करायी है। अनुप्रास, उत्प्रेक्षा, उपमा, विरोधाभास जैसे अलंकारों का प्रयोग हरिभद्र ने किया है; वस्तुत: ये अलंकार कथावस्तु के प्रवाह में बाधा नहीं पहुंचाते हैं तथा काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाते हैं। समराइच्चकहा में कवि की वर्णन-शक्ति, निरीक्षण-सूक्ष्मता, कल्पना-प्रचुरता आदि को देखकर बाण की कादम्बरी की याद आ जाती है । हरिभद्र की वर्णन-निपुणता एवं विविधता बड़ी विलक्षण है । सभी प्रकार के चित्र उपस्थित कर उन्होंने समराइच्चकहा
१. डॉ० जगदीश जैन :प्राकृत साहित्य का इतिहास १० ३९४. २. हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, पृ० २८७,
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