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________________ भूमिका को चित्रशाला बना दिया है । हरिभद्र की वर्णन निपुणता की एक आँकी देखिए "इओ य राइणा गुणसेणेणं उवसंतसीरावेयणेणं पुग्छिओ परियणो। अज्ज तस्स महातवस्सिस्स पारणयदियहो; तो सो आगओ पूइओ वा केण न व त्ति । तेहिं संलत्त । महाराय, आगओ आसि; किं तु तुह सोसवेयणाजणिययियसंताव रिचत्तनिययकज्जवावारे परियणे न केणइ संपइओ प्रच्छिओ वा । अमुणियवृत्तंनो य विचित्त ते परियणमवलोइऊण कंचि कालं गमेऊण उविग्गो विय निग्गओ रायगेहाओ त्ति । राइणा भणियं-- अहो मे अहन्नया; चुक्को मि महालाभस्स, संपत्तो य तवस्सि जणदेहपोकरणेण हन्तं अणत्यं ति। एवं विलविऊण बिइयदि यहे पहायसमए चेव गो तवोवणं । दिट्ठा य ते कुलवइमुहा बहवे तावसा, लज्जाविण प्रोणय उत्तिमंगेण पणमिया य णेणं विहिणा।" ---समराइच्चकहा पृ० २४-२५ हरिभद्र दृश्यों को व्योरेवार उपस्थित करते हैं। व्योरों के मूर्तरूप देने और उनका सांगोपांग चित्र खडा कर देने में वे सिद्धहस्त हैं । कुमार गुणसेन के द्वारा कदर्थना किये जाते हुए अग्निसेन का कैसा सांगोपांग चित्र आचार्य ने उपस्थित किया है-- "तम्मि य नयरे अतीव सयलजण बहुमओ धम्मसत्य संघायपादओ लोगववहारतीदकसलो अप्पारंभपरिग्गहो जन्नदत्तो नाम पुरोहियो त्ति । ता य सोमदेवागभसंभ ओ महल्लतिकोणुत्तिमंगो आपिंगलवट्टलोयणो ठाममेतोवलक्खियविविडनामो बिलमत्ताण्णमन्नो विजियदनचलयमहल्लदसणो वंकसुदीहरसिरोहरो विसमारि स्सवहजागो अइम उहवच्छत्यलो वंकविसमलंबोयरो एकपासुन्नयमहल्लवियउ कडियडो पिसमपाइ'टू ऊरुजयलो परिथ ल कढिगहस्सयो विसमवित्थिण्ण चलणो हुयवहसिहाजालपि केसो अग्गिसम्मो नाम प्रत्तो त्ति । तं च कोउहल्लेण कुमारगुणसेणो पहयपडुपड हमुइंग वंसकंसालयप्पहाणेण महया तरेण नयरजणमझे सहत्थतालं हसंतो नच्चावेइ, रासहम्मि रोविष पहटुवहडिभविंदपरिवारियं, छित्तरमयधरियपोंडरीयं मणहरुत्तालवज्जतडिडिमं आग'वयमहारायसई बहसो रायमगे सुनुरियतुरियं हिंडावेइ । एवं च पइदिणं कयंतेणेव तेण कय त्थिज्जंतस्स तस्स वेरग्गभावणा जाया।" -समराइच्च कहा, पृ० ११-१२ समराइच्चकहा की शैली सुभग और मनोरम वैदर्भी शदी है । वर्णनप्रणाली सरल और प्रसादमय है। वर्णनात्मक प्रसंगों में वाक्य लम्बे हैं, किन्तु संवादों में छोटे-छंटे वाक्य हैं । शब्दों में न कृत्रिमता है और न मन को उबा देने वाला विस्तार ही है। रुचिर स्वर, वर्णन तथा पदों से विभूपिन, रस और भावों से अलंकृत वह संसार को आकृष्ट कर रही है । कृत्रिमता या पा िडत्य-प्रदर्शन हरिभद्र की रुचि के प्रतिकूल प्रतीत होता है। उनकी लेखनी में प्रवाह है तथा प्रसादगुण है। चरित्र चित्रण के क्षेत्र में आचार्य की दृष्टि मानव-स्वभाव के विश्लेषण में अधिक गहराई तक सकी है। उनके पात्रों का चरित्र-चित्रण सजीव है। ये पात्र जीवन और जगत् के गम्भीर तत्त्वों का हृदयंगम करा में पूर्णतः समर्थ हैं। अपनी रंजन शक्ति तथा शैली की विशेषता के कारण समराइच्चकहा व्यापारियों, पर्यः कों, परिव्राजकों, नियमपालकों, कवियों तथा समाज के अन्य विभिन्न वर्गों, सभी के लिए उपयोगी है। आध्या िमक जीवन जीव को विकास के चरम बिन्दु पर ले जाता है और आध्यात्मिकता से रहित लौकिक जीवन जीव को पतन की ओर ले जाता है, यह सिद्ध करना समराइच्चकहा का अभिप्रेत है । जीवन की सारी घटनाएँ पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार चल रही हैं । हमें उनके बहाव में न आकर अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनी प्रवृत्ति को ऊर्ध्वमुखी बनाना चाहिए, यही आचार्य का उपदेश है। आचार्य ने संसार की असारता का अनुभव कर हृदयगम्य भाषा में वैराग्य की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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