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________________ ३०४ [समताकहा आसि, सा कलिगविसए महिसीए कुच्छिंसि महिसओ समुष्पन्नो; वढिओ कालक्कमेणं । सो य भंडभरयं वहतो समागओ विसालं' नार । वावाइओ य तेण जलपियणण्हाणनिमित्तं सिप्पानई समोयरंतो आसमंदुरापहाणो वोल्लाहकिसोरो। निवेइयं रन्नो। भणियं च णेण---अरे आणेह तं दुद्रुमहिसयं नरवइसमाएसाणंतरं च आणीओ एसो । तओ तं दळूण रोसफुरियाहरेण सूवयारं सद्दाविऊण भणियं राइणा - अरे एयं दुरायारं दुट्ठमाहिसयं सजीवं चेव लहु भडित्तयं करेहि त्ति । तेण वि य निहया सयल दिसासु लोहखोटया, लोहसंकलाहिं च नियामिओ लोहखोंटएसु। कयं च से तिगडहिंगलवणजलभरियं पुरओ महाकडाहं । पज्जालिओ य चउसु वि दिसासु नाइदूर म्मि चेव खइरवरसारकोहि हयासणो। तओ य सो महामहंतेण अग्मिणा पच्चमाणो सुक्कोट्टकंठताल तिव्वतिसापरिगओ अहिययरं दुक्खं जणयंतं खारपाणियं पिनिउमारद्धो। पलीविओ तेण सो देहमज्झे । निग्गयं च से बीयपासेणं किविसं । एत्थंतरम्मि समाणत्तं राइणा- पेसेहि लहुं महिसयभडित्तयं ति । तओ जत्थ जत्थ पक्कमसं, तओ तओ छिदिऊण पेसियं सूक्यारेण । सित्तो य एसो घयउत्तेडएहि । पक्खित्तं च ऽऽसीत् सा कलिङ्गविषये महिष्यः: कुक्षौ गहिषः सम त्पन्नः । वर्धितः कालक्रमेण। स च भाण्डभरं वहन समागतो विशाला नगरीम् । व्यापादितश्च तेन जलपानस्नाननिमित्तं सिप्रानदी समवतरन अश्वमन्दुराप्रधानो वोल्लाहाश्वकिशोरः । निवेदितं राज्ञः, भणितं च तेन-अरे, आनयत तं दुष्ट महिषम् । नरपतिसमादेशानन्तरं चानोत एषः । ततस्तं दृष्ट्वा रोषस्फुरिताधरेण सूपकारं शब्दायित्वा भणितं राज्ञा-अरे एतं दुराचारं दुष्टमहिषं सजीवमेव लघु भटित्रकं कुर्विति। तेनापि च निहता सकलदिक्षु लोहकोलकाः, लोहशृङ्खलाभिश्च नियमितो लोहकीलकेषु । कृतश्च तस्य त्रिकटुकहिङ्गु लवणजलभृतः पुरतो महाकडाहः । प्रज्वालि तश्च चतुर्वपि दिक्षु नातिदूरे एव खदिरवरसारकाष्ठ हुताशनः। ततश्च स अतिमहताऽग्निना पच्यमानः शुष्कौष्ठकण्ठतालुस्तीव्रतृट्परिगतोऽधिकतरं दुःखं जनयत् क्षारपानीयं पातुमारब्धः । प्रदीप्तस्तेन स देहमध्ये। निर्गतं च तस्य द्वितीयपार्वेण किल्विषम् । अत्रान्तरे समाज्ञप्तं राज्ञा-प्रेषय लघु महिषभटित्रकमिति । ततो यत्र यत्र पक्वमांसं ततस्ततो छित्त्वा प्रेषितं सूपकारेण । सिक्तश्च एष घृतभरैः। प्रक्षिप्तं च श्लक्ष्णवर्तितं लवणम् । विशेषण देश में भैंस के गर्भ में भैंसे से के रूप में उत्पन्न हुई । कालक्रम से वह भैंसा बढ़ा । वह माल के भार को वहन किये हए उज्जयिनी नगरी आया। उसने जल पीने के लिए शिप्रा नदी में उतरते हुए अश्वशाला के प्रधान वोल्लाह जाति के किशोर घोड़े को मार डाला। राजा से निवेदन किया गया। उसने कहा ---"अरे उस दुष्ट भैंसे को ल.ओ। राजा की आज्ञा से उसे लाया गया। तब उसे देखकर रोष से जिसके अधर फड़क रहे थे, ऐसे राजा ने रसोइये को बुलाकर कहा-"अरे इस दुराचारी दुष्ट भैंसे का जीवित ही शीघ्र भुरता बना दो। उसने भी चारों तरफ लोहे की कीलें जड़ दीं और लोहे की सांकलों से कस र लोहे की खूटी से बाँध दिया। उसके सामने सोंठ, पीपर, मिर्च, हींग और नमक से भरा हुआ बहुत बड़ा कड़ाहा रख दिया। चारों ओर समीप में ही खैर आदि की सारयुक्त लकड़ियों की अग्नि जला दी। तदनन्तर वह भ कती अग्नि के द्वारः पकता हुआ ओठ, कण्ठ और तालु सूख जाने के कारण अत्यधिक प्यास से बहुत दुःखी होता हुआ नमक के पानी को पीने लगा। वह शरीर के अन्दर जल उठा । उसके दूसरी ओर से पीप निकली। इस बीच राजा ने आज्ञा दी-शीघ्र ही भैंसे के भुरते को भेजो।" तब जहाँ-जहाँ मांस पक गया था---''वहाँ-वहां से काटकर रसोइये ने भेजा । इसे घी से भरा (उसके १. उज्जेणि-ख, २. सिप्पॅनई-क, ३. आसवंदुरा"-ख, ४. निवेइओ य"क, ५. लोहमयखों -क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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