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________________ पउत्यो भवो] तीए च्चिय पेच्छ कहं अंगुलिविगमखयसंगमेहि च । ते चेव हंदि देसा घणियं उन्वेवया जाया ॥४०॥ केसाहरनयणेहिं सविन्भमुन्भंतपेच्छिएहिं च । तिव्वतवाण मणीण वि जा चित्तहरा दढमासि ॥४०६॥ स च्चेय कह णु एहि तेहि चिय पावपरिणइवसेण । चितिज्जंती वि पिया कामीण वि कुणइ निव्वेयं ॥४०७।। एवं च चितयंतो जाव कंचि कालं चिट्ठामि, ताव सद्दाविओ राइणा सूक्यारो, भणिओ य । अरे न रुच्इ मे इमं महिसयमंसं, ता अन्नं किपि लहुँ आणेहि त्ति। तओ सूवयारेण कलिऊण 'चंडसासणो देवो, मा कालक्खेवो हविस्सई' ति ममं चेव एक्कं सत्थियं छेतूण कयं भडितयं, पेसियं च रन्नो। तेण वि य 'तायस्स उवणमउ' त्ति भणिऊण दवावियं थेवमग्गासणियबंभणाणं., पेसियं च किपि नयणावलोए, भुत्तं च सेसमप्पणा। एत्थंतरम्मि य जा सा महं जणणी गुणहरेण वावाइया तस्या एव पश्य कथं अङ्गुलिविगमक्षयसङ्गमैश्च । ते एव हन्दि देशा गाढमुद्वेजका जाताः ॥४०५।। केशाधरनयनैः सविभ्रममुभ्रान्तप्रेक्षितैश्च । तीव्रतपसां मुनीनामपि या चित्तहरा दृढमासोत् ।।४०६॥ सा एव कथं त्विदानीं तैरेव पापपरिणतिवशेन । चिन्त्यमानाऽपि प्रिया कामिनामपि करोति निर्वेदम् ॥४०७।। एवं च चिन्तयन् यावत् कञ्चित् कालं तिष्ठामि तावत् शब्दायितो राज्ञा सूपकारः, भणितश्चअरे ! न रोचते मे इमं महिषमांसम, ततोऽन्यत किमपि लघु आनयेति । ततः सूपकारेण कलयित्वा 'चण्डशासनो देवः, मा कालक्षेपो भविष्यति' इति ममैवैकं सक्थि छित्त्वा कृतं भटित्रकम् , प्रेषितं च राज्ञः । तेनापि च 'तातस्योपनमतु' इति भणित्वा दापितं स्तोकमग्रासनस्थब्राह्मणेभ्यः, प्रेषितं च किमपि नयनावल्याः, भुक्तं च शेषमात्मना । अत्रान्तरे च या सा मम जननी गुणधरेण व्यापादिता उसी की अंगुलियां नष्ट हो जाने और क्षय रोग हो जाने के कारण वे ही स्थान देखो ! कैसे अत्यधिक उद्वेम को उत्पन्न करने वाले हो गये हैं ? केश, अधर और नयनों के विलास तथा चंचल दृष्टि से जो तपस्या करने वाले मुनियों के भी चित्त हरने में समर्थ थी, वही इस समय पाप के फलस्वरूप प्रिया का चिन्तन करते हए कामिजनों को भी वैराग्य उत्पन्न कर रही है ।।४०५-४०७॥ ___ इस प्रकार विचार करता हुआ जब कुछ समय से बैठा हुआ था तभी राजा नेर सोइये को बुलाया और कहा'अरे ! यह भैंसे का मांस मुझे अच्छा नहीं लगता है, अत: कोई दूसरा (मांस) शीघ्र ही लाओ।" तब रसोइयों ने यह मानकर कि महाराज की आज्ञा कठोर है, विलम्ब न हो, मेरी ही एक जांघ काटकर भुरता बनाया और राजा को भेज दिया । उसने भी पिता को प्राप्त हो, ऐसा कहकर कुछ आगे आसन पर बैठे हुए ब्राह्मणों को दिया, कुछ नयनावली को भेजा और शेष स्वयं खा लिया। इसी बीच जो मेरी माता गुणधर ने मार डाली थी वह कलिंग १."संगएहिं-ख, २. दव्वावियं-क, ३. ""बंभणस्स-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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