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________________ ३०२ [समराल्यकहा इह अज्जं चेव इमे महिसया वावाइया, ता किं पुण एस एवंविहो पूगंधो त्ति ? तीए भणियं- हला पेम्ममंजसिए, न एस महिसगंधो; एसो खु देवीए नयणावलीए तहाऽजिण्णे रसलोलुयत्तणेण मच्छयं खाइऊण कोढगहियाए वणंतरुग्गिण्णो देहनिस्संदवाओ। इयरीए भणियं-हला सुंदरिए, न एस मच्छयाहारमेत समुप्पन्नो कोढो, किं तु तहासब्भावियमहारायविसप्पओयवावायणजणियपावसमुत्थो त्ति । ता अलमम्हाणमिमीए । एहि अन्नओ गच्छम्ह, ता मा किंपि आणत्तियं देइस्सइ त्ति। गयाओ चेडियाओ। तओ सविसेसं पलोइया मए, दिट्ठा य एक्कपासोवविट्ठा मक्खियसहस्ससंपायसिया विणिग्गयातंबनय गा नयणावलि ति। तओ तं पेच्छिऊण तिव्वयरदुक्खसंतत्तो सोइउं पवत्तो। कहं? हा किह सा पच्चक्खं कम्ममलोच्छाइया पणइणी मे। जम्मंतरं व पत्ता रूवविवज्जासभेएण ॥४०३॥ वयणेण थणहरेणं चरणेहिय जीए निज्जिया आसि । सव्वविलयाणमहियं सोहा ससिकलसकमलाणं ॥४०४॥ एवंविधः पूतिगन्ध इति ? तया भणितम्-हले प्रेममञ्जूषिके ! न एष महिषगन्धः, एष खलु देव्या नयनावल्या तथाऽजीर्णे रसलोलुपत्वेन मत्स्यं खादित्वा कुष्ठगृहीतया व्रणान्तरुद्गीर्णो देहनिःस्यन्दवातः । इतरया भणितम्-हले सुन्दरिके ! नैष मत्स्याहारमात्रसमुत्पन्नः कुष्टः, किन्तु तथासद्भावितमहाराजविषप्रयोगव्यापादनजनितपापसमुत्थ इति । ततोऽलमस्माकमनया । एहि, अन्यतो गच्छावः, ततो मा किमपि आज्ञप्तिकां दास्यतीति । गते चेटिके। ततः सविशेष प्रलोकिता मया, दष्टाच एकपाश्र्वोपविष्टा मक्षिकासहस्रसम्पातदूषिता विनिर्गताताम्रनयना नयनावलिरिति । ततस्तां प्रेक्ष्य तीव्रतरदुःखसन्तप्त: शोचितुं प्रवृत्तः । कथम् ? हा कथं सा प्रत्यक्ष कर्ममलावच्छादिता प्रणयिनी मे। जम्मान्तरमिव प्राप्ता रूपविपर्यासभेदेन ॥४०३।। वदनेन स्तनभरेण चरणाभ्यां च यया निर्जिताऽऽसोत् । सर्ववनिताभ्योऽधिकं शोभा शशिकलशकमलानाम् ।।४०४।। कहा-“सखी सुन्दरी। यहाँ पर आज ही ये भैसे मारे गये हैं, फिर भी यह सड़ी बास कहाँ से आ रही है ?" उसने कहा--"सखी प्रेममंजूषा, यह भैंसों की गन्ध नहीं है। महारानी नयनावली ने अजीर्ण होने पर भी स्वाद की लोलुपता के कारण मछली को खा लिया, जिससे उसे कोढ़ ने घेर लिया। उसके घाव से निकली हुई पीप की यह दर्गन्धि है।" दसरी ने कहा-“हे सखी सुन्दरी ! यह मछली के माहार मात्र से उत्पन्न कोढ़ नहीं है, अपितु उस प्रकार जीवित महाराज को विष देकर मारने से उत्पन्न यह कोढ़ है । अतः हम लोगों को इससे क्या । आओ, दोनों दूसरी तरफ चलें ताकि वह कोई आज्ञा न दे सके। दोनों दासियाँ चली गयीं । तब मैंने विशेष रूप से एक बगल में बैठी हुई नयनावली को देखा । वह हजारों मक्खियों के बैठने से दूषित थी और उसकी लाल-लाल आँखें निकल आयी थीं। तब उसे देखकर अत्यधिक दुःख से दुःखी होकर मैं शोक करने लगा। कैसे ? ___ हाय ! प्रत्यक्ष रूप से कर्ममलों से आच्छादित हुई वह मेरी प्रणयिनी किस प्रकार रूप बदलने के कारण मानो दूसरे जन्म को प्राप्त हो गयी है । जिसने मुख, स्तन और दोनों चरणों से क्रमशः चन्द्रमा, कलश और कमलों की शोभा जीत ली थी और जिसकी शोभा समस्त स्त्रियों में श्रेष्ठ थी॥४०३-४०४॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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