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________________ परयो भयो] समप्पिओ अयापालयस्स । अन्नथणपाणेणं जीविओ। पत्तो कुमारभावं । एत्थंतरम्मि पारद्धीफलणनिमित्तं' गुणहरेण रन्ना कुलदेवमापूयाविहाणं कयं । भोयणत्थं वावाइया पन्नरस महिसया। बंभणजणभोयणत्थं च सुसंभियं कयं महिसमंसं । इओ य 'किर एवित्तमहो मेसो हवइ'त्ति लोयवाओ (आ) आणाविओ अहयं कायसुणउच्चिद्वरद्धपक्कपरि सोहणनिमित्तं सूक्यारेणं, ठाविओ महाणसदुवारे । तओ मए उस्सिघियं तं मंसं, भुत्तं बंभहि, वि इणं आयाणं । उठ्ठिया दियवरा, ठिया य पंतिया-- पंतियाहि । एत्थंतरम्मि विसेसुज्जलनेवत्थं अंतेउरं घेत्तूण आगओ गुणहरो । तं च मे द?ण समुप्पन्नं जाइस्सरणं । विन्नाओ मे सव्ववतंतो। चलणेसु निवडिऊषं वाइया बंभणा। भणियं च तेण-एसा पंतिया तायस्स उवणमउ, एसा य अज्जियाए, एयाओ य कुलदेवयाए त्ति। तं पडिस्सुयं बंभणेहिं । चितियं च मए- अहो एवं पि नाम पुत्तए जयंते अहं दुविखओ ति। एत्थंतरम्मि भोयणनिमित्तं चेव सयलमाइलोयपरियओ उवविठ्ठो सया। दिट्ठाओ देवीओ, न दिट्ठा नयणावली । तओमएचितियंअह कहिं पुण सा भविस्सइ ? एत्यंतरम्मि अन्नं उद्दिसिऊग भणियं एगाए चेडीए । हला सुंदरिए, अत्रान्तरे पापद्धिफलननिमित्तं गुणधरेण राज्ञा कुलदेवतापजाविधानं कृतम् । भोजनार्थं व्यापादिता पञ्चदश महिषाः । ब्राह्मण जनभोजनार्थे च सुसम्भृतं कृतं महिषमांसम्। इतश्च किल 'पवित्रमुखो मेषो भवति' इति लोकवादाद् आनायितोऽहं काकशुनकोच्छिष्टरद्धपक्वपरिशोधननिमित्तं सूपकारेण। स्थापितो महानसद्वारे। ततो मया उच्छिवितं तन्मांसम्, भुक्तं ब्राह्मणैः, वितीर्णमाचमनम् । उत्थिता द्विजवरा:, स्थिताश्च पङक्तिकापङ्क्तिकाभिः । अत्रान्तरे विशेषोज्ज्वलनेपथ्यमन्तःपुरं गृहीत्वाऽऽगतो गुणधरः । तं च मे दृष्ट्वा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । विज्ञातो मया सर्ववृत्तान्तः । चरणेषु निपत्याभिवादिता ब्राह्मणाः । भणितं तेन-- एषा पङ्क्तिका तातस्योपनमा, एषा चायिकायाः, एताश्च कुलदेवताया इति । तत्प्रतिश्र तं ब्राह्मणैः । चिन्तितं च मया-- अहो एवमपि नाम पुत्र जयति अहं दुःखित इति । अत्रान्तरे भोजननिमित्तमेव सकलमातृलोकपरिवृत उपविष्टो राजा । दृष्टा देव्यः, न दष्टा नयनावलिः । ततो मया चिन्तितम्--अथ कुत्र पुनः सा भविष्यति ? अत्रान्तरे अन्यामुद्दिश्य भणितमे कया चेट्या । हले सुन्दरिके ! इह अद्य व इमे महिषा व्यापादिताः, ततः किं पुनरेष को चीरकर मुझे बाहर निकाला गया। (मुझे) बकरी पालने वाले को दे दिया। दूसरी बकरी के स्तन को पीकर कुमारावस्था को प्राप्त हुआ। इसी बीच शिकार के फल के लिए गुणधर राजा ने कुलदेवी की पूजा का आयोजन किया। भोजन के लिए पन्द्रह भैसे मारे गये । ब्राह्मणों के भोजन के लिए अच्छी तरह भरकर भैंसे का माँस पकाया गया। 'इधर बकरा पवित्र मह वाला होता है' इस प्रकार की लोगों की चर्चा के कारण कौवे और कुत्ते के द्वारा जूठे किये गये अधपकाये मांस को शुद्ध करने के लिए रसोइया मुझे लाया । रसोईघर के द्वार पर मुझे बाँध दिया । तब मैंने उस मांस को जोर से सूंघा, ब्राह्मणों ने भोजन किया, पानी दिया गया। ब्राह्मण उठ गये और पंक्तियाँ बनाकर बैठ गये। इसी बीच विशेष उज्ज्वल पोशाक वाली स्त्रियों को लेकर गुणधर आया। उसे देखकर मुझे जातिस्मरण उत्पन्न हो गया। मैंने समस्त वृतान्त जाना । (गुणधर ने) चरणों में पड़कर ब्राह्मणों का अभिवादन किया। उसने कहा--"यह पंक्ति पिता जी को प्राप्त हो, यह माता जी को और ये पंक्तियां कुलदेवी को।" उसे ब्राह्मणों ने स्वीकार किया। मैंने सोचा-ओह ! इस प्रकार पुत्र के जय करने पर भी मैं दु:खी हूँ। इसी बीच भोजन के लिए समस्त माताओं के साथ राजा बैठा । महारानी को देखा, किन्तु नयनावली दिखाई नहीं दी। तब मैंने सोचा-वह कहाँ गयी होगी? इसी बीच एक दासी ने दूसरी से १, ""फलनि''-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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