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________________ परत्वो भवो] सहिणवट्टिय लोणं । विसेसेण पंजालिओ जलणो। एत्थंतरम्मि आगओ रायपरिवेसओ। भणियं च पेण-अरे अन्नं पि विजाईयं भडित्तयं लहुं देहि ति । तओ पुलइओ अहं सूवयारेण' । 'भडित्तयं कज्जिहामि' त्ति सम्मढो हियएण, उल्लुक्क सिराजालं, विहडिओ अद्विबंधो, गलियाई सव्विदियवलाई । तओ कंठगयपाणो चेव गहिओ सूवयारेण, छिन्नं मे विइयपासयं । विमुक्को य मे देहो जीविएण। तओ देवाणुप्पिया, एगसमयम्मि चेव सो महिसयजीवो अहं च मरिऊण उप्पन्ना विसालापाणवाडए कुक्कुडीए गन्मम्मि । अइक्कंतो कोइ कालो । उवट्ठिए पसवकाले वावाइया णे जणणी मज्जारपोयएण। कयवरोवरि च तं खायमाणस्स गलियं अंडयदुर्ग गओ मज्जारो। पक्खित्तो य णे उवरि काएवि चंडालीए सुप्पकोण कज्जवो। तदुम्हापहावेण जीविया अम्हे । फुडियाइं अंडयाई। निग्गया अम्हे । गहियाई अणहुलाभिहाणेण चंडालदारएणं, जीवाविया तेण । जायाओ णे चंदचंदिमासच्छहाओ पिच्छावलीओ; समुभूया मे सुयमुहगुंजद्ध रावसरिसा चूला गरुडचंचुसरिसा य मे प्रज्वालितो ज्वलनः । अत्रान्तरे आगतो राजपरिवेषकः । भणितं च तेन-अरे अन्यदपि विजातीयं भटित्रकं लघु देहीति । ततः प्रलोकितोऽहं सूपकारेण । (अहं) 'भटित्रं करिष्ये' इति सम्मूढो हृदयेन, (उल्लुक्क) स्तब्धं शिराजालम् । विघटितोऽस्थिबन्धः। गलितानि सर्वेन्द्रियवलानि । ततः कण्ठगतप्राण एव गृहीतः सूपकारेण, छिन्नं मे द्वितीयं पाश्वम् । विमुक्तश्च मे देहो जीवितेन । . ततो देवानुप्रिय ! एकसमये एव स महिषजीवोऽहं च मृत्वा उत्पन्नौ विशालाप्राणवाटके कुकुट्या गर्भ। अति कान्तः कोऽपि काल: । उपस्थिते प्रसवकाले व्यापादिता आवयोर्जननी मार्जारपोतकेन। कचवरोपरि तां च खादतो गलितमण्डद्विकम् । गतो मार्जारः। प्रक्षिप्तश्चावयोपरि कयाऽपि चाण्डाल्या शर्पकोणेन कचवरः । तदुष्मप्रभावेण जीवितावाम् । स्फुटितेऽण्डके । निर्गतावावाम । गृहीतो अनहुनाभिधानेन चण्डालदारकेण । जीवितो तेन । जाता श्चावयोश्चन्द्रचन्द्रिकासच्छाया: पिच्छावल्यः । समुद्भता मे शुकम खगुजार्धरागसदृशो चुडा, ऊपर) पतला नमक छिड़का । विशेष रूप से अग्नि में गर्म किया । इसी बीच राजा का खाना परोसने वाला आया। उसने कहा-"और भी विजातीय भुरते को शीघ्र दो।" तब रसोइये ने मुझे देखा । मेरा भुरता बनाया जायेगा ऐसा सुनकर हृदय से मूढ़ हो गया । नाड़ियों का समूह रुक गया। हड्डियों का बन्धन शिथिल हो गया। समस्त इन्द्रियाँ ढीली पड़ गयीं । तब कण्ठगत प्राण रहते हुए ही रसोइये ने मुझे पकड़ा और मेरा दूसरा बगल काट डाला । मेरे शरीर को प्राणों से विमुख कर दिया। तदनन्तर हे देवानुप्रिय ! एक समय ही वह भैंसे का जीव और मैं मरकर उज्जयिनी के बाग में मुर्गी के गर्भ में आये । कुछ समय बीता। प्रपवकाल उपस्थित होने पर बिल्ली के बच्चे ने हमारी मां को मार डाला। उसे खाते समय कचड़े के ऊपर दो अण्डे गिर पड़े । बिलाव चला गया। किसी चाण्डाल ने हमारे ऊपर सूप के कोने से कचड़ा फेंका । उसकी गर्मी के प्रभाव से हम दोनों जीवित रहे । अण्डे फूटे । हम दोनों निकल पड़े । अनहुल नामक चाण्डाल के लड़के ने हमें पकड़ लिया। उसने हम दोनों को जिलाया। हम दोनों के चन्द्रमा की चांदनी के समान पंखों का समूह निकल आया। तोते के मुंह अथवा गुमची के समान आधी लाल चोटी मेरे ऊपर उत्पन्न १. भडित्तयनिमित्तं अईवरोद्दाए दिट्ठीए । तओ अहं भडितयं कज्जिहामित्ति आभोइऊण सम्मूढो-ख, २. उल्लकं-ग, ३. उवित्यए-क, ४. अंडयजयं-ख, ५, कज्जओ-कचवरः, ६. तउम्हा "-क, तदुण्हा"-ख, ७. अणहुया"-क, अणहुलभि"-ख, अणुहल्ला "-ग। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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