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________________ चजस्वी भवोj २६३ मवत्यंतरमणुहवंतो निवडिओ सीहासणाओ। 'हा हा किमेयं' ति विसण्णो मे समीवमागओ पडिहारो। भणिओ य तेण 'देव, किमेयं' ति। तओ जडा जोह ति न जंपियं मए । निरूविओ तेण, उवलद्धो मे विसवियारो। भणियं च णेण-अरे वाहरह सिग्छ विसप्पओयनिग्घायणसमत्थे वेज्जे। तओ 'न सोहणं वेज्जवाहरणं' ति चितयंती ससंभमसमक्खित्तुत्तरीया हाहारवं करेमाणी निवडिया ममोरि देवो । अवणीयं च तीए निरंसुगं चेव कंदमाणीए महं अंगुदुयंगलोहि कंठगयं ममपीडाए जीवियं। तओ अहं देवाणुप्पिया, पियाए वावाइओ समाणो अट्टज्माणदोसेण हिमवंतदाहिणदिसालग्गे सिलिधपव्वए समुप्पन्नो बरिहिणीए कुच्छिसि । जाओ कालक्कमेण । तओ बालओ चेव जणि वावाइऊण गहिओ वाहजुवाणेण, दिन्नो सत्तुयपत्थएणं नंदावाडयवासिणो गामतलवरस्स । तत्थ य अजायपक्खो सीउण्हातण्हावेयणाओ अणुहवंतो चिट्ठामि। तिव्वयरीए छुहावेयणाए पडिपेल्लिओ किमए खाइउं पयत्तो म्हि । तेहि य मे पावकम्मेहि संधुक्किज्जसाणं वित्थारमुवगयं सरीरं । जाओ सिंहासनात् । 'हा हा किमेतद्' इति विषण्णो मम समीपमागतः प्रतोहारः । भणितश्च तेन-देव ! किमतद' इति ? ततो जडा जिह्वति न जल्पितं मया। निरूपितस्तेन, उपलब्धो मम विषविकारः। भणितं च तेन-अरे व्याहरत शीघ्र विषप्रयोगनिर्घातनसमर्थान् वैद्यान् । ततो 'न शोभनं वैद्यव्या हरणम्' इति चिन्तयन्ती ससम्भ्रमोरिक्षप्तोत्तरीया हाहारवं कुर्वन्ती निपतिता ममोपरि देवी। अपनीतं च तया निरंशुकमेव क्रन्दन्त्या ममाङ्गुष्ठागुलिभिः कण्ठगतं मर्मपीडया जीवितम् । ततोऽहं देवानुप्रिय ! प्रियया व्यापादितः सन् आर्तध्यानदोषेण हिमवद्दक्षिणदिशालग्ने शिलोन्ध्रपर्वते समुत्पन्नो वहिण्याः कुक्षौ। जातः कालक्रमेण । ततो बालक एव जननी व्यापाद्य गहोतो व्याधयुवकेन । दत्तः सक्तुप्रस्थकेन नन्दावाटकवासिनो ग्रामतलवरस्य । तत्र च अजातपक्ष: शातोष्णतष्णावेदना अनुभवंस्तिष्ठामि । तीव्रतरया क्षुद्वदनया प्रतिप्रेरितः कृमीन् खादितुं प्रवृत्तो ऽस्मि । तैश्च मम पापकर्मभिः सन्ध्रुक्ष्यमानं (पोष्यमाणं) विस्तारमुपगतं शरीरम् । जातश्च मम फैलाव रुक गया। तब मैं उस प्रकार की अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव कर सिंहासन से गिर पड़ा। 'हाय ! हाय ! यह क्या है ?' इस प्रकार दुःखी होकर द्वारपाल मेरे पास आया । उसने कहा- “महाराज ! क्या हुआ ?" तब जीभ जड़ होने के कारण मैं नहीं बोल पाया । उसने देखा, मेरे ऊपर विष का विकार दिखाई पड़ा । उसने कहा-"अरे विष के प्रयोग का निवारण करने में समर्थ वैद्यों को शीघ्र बुलाओ।" तब वैद्यों का बुलाना ठीक नहीं, ऐसा सोचकर शीघ्र ही दुपट्टा फेंक कर 'हाय हाय' शब्द करती हुई महारानी मेरे ऊपर गिर पड़ी। उसने चिल्लाते हुए बिना वस्त्र की सहायता के ही अंगूठे की अंगुलियों से मर्मपीड़ा पहुँचाकर मेरे प्राण ले लिये। तब हे देवानुप्रिय ! प्रिया के द्वारा मारा जाकर मैं आर्तध्यान के दोष से हिमवान् पर्वत की दक्षिण दिशा में लगे हुए शिलीन्ध्रपर्वत पर मोर के गर्भ में आया । अनन्तर बाल्यावस्था में ही माता को मारनेवाले मुझे एक बहेलिया युवक ने ले लिया। एक प्रस्थ भर सत्तू में उसने उसे नन्दावाटक ग्राम के रक्षक (ग्राम तलवर) को दे दिया। वहाँ पर मैं ठण्ड और गर्मी की वेदना का अनुभव करता रहा । मेरे पंख नहीं उगे थे । अत्यधिक भूख की वेदना से प्रेरित होकर कीड़े-मकोड़ों के खाने में प्रवृत्त हुआ। मेरे पापकर्म से उन कीड़े मकोड़ों से पोषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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