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________________ २९४ सिमरामकहा मे विविहरयणामेलसच्छहो पिच्छयब्भारो । तओ अहं गाहिओ नट्टकलं, पेसिओ य तेण 'सुंदरो' ति कलिऊण नियपुत्तस्स चेव पाहुडं राइणो गुणहरस्स। इओ य जसोहरा वि मे पुग्वजम्मजणणी मम मरणदिवसम्मि चेव अट्टवसट्टा मरिऊण पावकम्मवलियाए करहाडयविसए धन्नऊरयसन्निवेसम्मि कुक्कुरोगब्भम्मि कुक्कुरत्ताए उववन्ना । जाओ य कुक्कुरो। सो य 'मणपवणवेयदक्खो' त्ति धन्नपूरय सामिणा गुणधरस्स चेव पेसिओ कोसल्लियं ति। पत्ता अम्हे दुवे वि समयं चेव विसालं, पेसिया य अत्थाइयामंडवगयस्स रन्नो, दिट्ठा य तेण । जाया एयस्स अम्हेसु पीई, पसंसिया दुवे वि । समप्पिओ सुणओ अयंडमच्चुस्स सोणहियमयहरस्स, अहं च रायसउणपरिवालयस्स नीलकंठस्स। भगिओ य सोणहिओ-अरे जाणासि चेव तुमं, जहा अहं दोसु दढं पसत्तो पयावालणे पारद्धीए य । सुणएसु जीवघायणं सुहं ति, ता महंतं जत्तं करेज्जासि ति। तेण भणियं 'जं देवो आणवेई' ति। दुवे विय अम्हे जहाविहिं लालेइ नरवई । एवं च अइक्कंतो कोइ कालो। विविधरत्नापीडसच्छायः पिच्छकभारः । ततोऽहं ग्राहितो नाट्यकलाम्, प्रेषितश्च तेन सुन्दरः' इति कलयित्वा निजपुत्रस्यैव प्राभृतं राज्ञो गुणधरस्य । इतश्च यशोधराऽपि मम पूर्वजन्मजननी मम मरणदिवसे एव आर्तवशार्ता मृत्वा पापकर्मवलिकतया करहाटकविषये धान्यपूरकसन्निवेशे कुक्कुरीगर्भे कुक्करतयोपपन्ना । जातश्च कुक्कुरः । स च 'मनःपवनवेगदक्षः' इति धान्यपूरकस्वामिना गुणधरस्यैव प्रेषितः (कोसल्लिय) उपहारम् । प्राप्तौ आवां द्वावपि समकमेव विशालाम् (उज्जयिनीम्)। प्रेषितौ चास्थानिकामण्डपगतस्य राज्ञः, दृष्टौ च तेन। जाता आवयोरेतस्य प्रीतिः, प्रशंसितो द्वावपि । समर्पितः शुनकोऽकाण्डमृत्योः शौनकिकमुख्यस्य, अहं च राजशकुनपरिपालकस्य नीलकण्ठस्य । भणितश्च शौनकिकः-अरे जानास्येव त्वम्, यथाऽहं द्वयोर्दै ढं प्रसक्तःप्रजापालने पापद्धच । शुनकैर्जीवघातनं सुखमिति, ततो महान्तं यत्नं कुर्या इति । तेन भणितम् - 'यद् देव आज्ञापयति' इति । द्वावपि चावां यथाविधि लालयति नरपतिः। एवं चातिक्रान्तः कोऽपि कालः। मेरा शरीर विस्तार को प्राप्त हो गया। मेरे पंखों का भार अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुओं से युक्त हो गया। तब मैंने नाट्यकला सीखी, उसने 'सुन्दर है' ऐसा मानकर मेरे ही पुत्र गुणधर कुमार के पास मुझे भेंट के रूप में भेजा । इधर मेरे पहले जन्म की मां यशोधरा भी मेरे मरण के दिन ही आर्तध्यानवश दुःखी होकर बलि देने के पापकर्म के कारण करहाटक देश के धान्यपूर नामक सन्निवेश में कुत्ती के गर्भ में कुत्ते के रूप में आयी। कुत्ता उत्पन्न हुआ। वह वेग में मन और पवन के समान निपुण है-ऐसा मानकर धान्यपूर नगर के स्वामी ने गुणधर के लिए ही उपहार रूप में भेजा। हम दोनों साथ ही उज्जयिनी पहुँचे। दोनों को राज सभा में स्थित राजा के पास भेजा गया, उसने दोनों को देखा। इसकी हम दोनों पर प्रीति हुई और (इसने) हम दोनों की प्रशंसा की। असमय में जिसकी मृत्यु होने वाली थी, ऐसे कुत्ते को प्रमुख श्वानपालक (शौनकिकमुख्य) के पास और मुझे राजा के पक्षियों का पालन करनेवाले (राजशकुनपरिपालक) नीलकंठ के पास भेज दिया गया। श्वानापालक से कहा गया--"अरे, तुम जानते हो कि मैं दोनों में लगा हुआ हूं-प्रजापालन में और शिकार में । कुत्ते को जीवों का घात करना सुखकर है अत: महान् यत्न करना।" उसने कहा-"जो महाराज आज्ञा दें।" हम दोनों को महाराज ने बहुत अधिक लाड़ प्यार किया। इस प्रकार कुछ समय बीत गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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