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________________ परयो भयो] २९५ अन्नया य अहं गयणयलपासायसंठियं आरूढो इंदनीलनिज्जू हयं । तत्थ अंतेउराणं रसणनेउरनिणायगम्भिणं नवजलहरसदं पिव गुणणियामुरयनिग्घोसमायण्णिऊण नच्चिउं पयत्तो। तयवसाणे य वायायणविवरेगदेसेण दिट्ठा मए चित्तसालियाए सह खुज्जएण सयणुच्छंगे रइसुहमणुहवंती नयणावली । तं च मे दळूण समुप्पन्नं जाइस्सरणं। तओ कम्मवसयत्तणेण अमरिसाणलपलित्तेणं चंचुनहग्गेहि वि[ल]क्खिउमारद्धो । तीए वि तस्स संतियं खुज्जस्स रेण्हिऊणं लोहमयलउडयं कोहाभिभूयाए पहओ अहं पणइणीए । पहारविहलो निवडिओ सोवाणवत्तणीए, लुढमाणो पत्तो तमुद्दे सं, जत्थ नरवई जूयं खेल्लइ ति। मग्गओ य मे येण्ह गेण्ह' ति संलवंतो समागओ देवीपरियणो । तं च तहाविहं सद्द सोऊण तद्देसवत्तिणा तेण पुव्वभवजणणीसुणएण धाविऊण गहिओ अहं । घेप्पमाणं च मं पेच्छिऊण राइणा हाहारवं करेमाणेण पहओ सो सुणओ अक्खपाडएणं ति। पहारविहलंघलेण वमंतरुहिरं मुको अहं तेण। कंठगयपाणा निवडिया दुवे वि अम्हे धरणिवठे । सोगमुवगओ राया। आणता तेणपुरोहियप्पमुहा मणुस्सा। जहा तायस्स उवरयस्स अज्जियाए यकाला य रुलवंगचंदणकठेहि अन्यदा चाहं गगनतलप्रासादसंस्थितमारूढ इन्द्रनीलनिए हकम् (गवाक्षम् । तत्रान्तःपुराणां रशनानुपुरनिनादभितं नवजलधरशब्दमिव गुणनिका(नाट्यशाला) मुरजनिर्घोषमाकर्ण्य नर्तितुं प्रवृत्तः । तदवसाने च वातायनविवरैकदेशेन दृष्टा मया चित्रशालायां सह कुब्जकेन शयनोत्सङ्गे प्रतिसुखमनुभवन्ती नयनावली। तां च मे दृष्टा समुत्पन्नं जातिस्मरणम् । ततः कर्मवशनत्वेअमर्षानलप्रदीप्तेन चञ्चुनखाविक्षणितुमारब्धः। तयापि तस्य सत्कं कुब्जस्य गृहीत्वा लोहमयलकुटं क्रोधाभिभूतया प्रहतोऽहं प्रणयिन्या । प्रहारविह्वलो निपतितो सोपानवतिन्याम् । लुठन् प्राप्तस्तमुद्देशम् , यत्र नरपतिद्य तं खेलतीति । मार्गतश्च मे 'गृहाण गहाण' इति संलपन समागतो देवीपरिजनः । तं च तथाविध मे शब्दं श्रुत्वा तद्देशवर्तिना तेन पूर्वभवजननीशुनकेन धावित्वागृहीतोऽहम् । गृह्यमाणं च मां प्रेक्ष्य राज्ञा हाहारवं कुर्वता प्रहतः स शु नकोऽक्षपाटकेनेति । प्रहारविह्वलाङ्गेन वमद रुधिरं मुक्तोऽहं तेन । कण्ठगतप्राणौ निपतितौ द्वावपि आवां धरणीपृष्ठे। शोकमुपगतो राजा आज्ञप्तास्तेन पुरोहितप्रमुखा मनुष्याः। यथा तातस्योपरतस्यायिकायाश्च कालागुरुलवङ्गचन्दन एक दिन मैं अत्यधिक ऊंचे (आकाश में स्थित) भवन में इन्द्रनीलमणि से निर्मित झरोखे में बैठ गया । वहाँ अन्तःपुर की स्त्रियों की करधनी और नूपुर के शब्द से भरे हुए नये मेघ के शब्द के समान नाट्यशाला के मृदंग की ध्वनि सुनकर नाचने लगा । नृत्य समाप्त होने पर झरोखे के छेद के एक भाग से मैंने चित्रशाला में कुबड़े के साथ रतिसुख का अनुभव करती हुई नयनावली को देखा । उसे देखकर मुझे जातिस्मरण (पूर्वजन्म का ज्ञान) हो गया । तब कर्मवश क्रोधरूपी अग्नि से जले हुए मैंने चोंच की अगली नोंक से प्रहार करना शुरू किया । उस प्रणयिनी ने कुबड़े के हाथ से लोहे का डण्डा लेकर क्रोध से अभिभूत होकर मेरे ऊपर प्रहार किया। प्रहार से विह्वल हुआ मैं सीढ़ियों के छोर पर गिर पड़ा। लुढ़ककर उस स्थान पर पहुंचा जहाँ राजा जुआ खेल रहा था। मुझे ढूंढते हुए पकड़ो पकड़ों' ऐसा कहते हुए महारानी का सेवक आया । उसके और उस प्रकार के मेरे शब्द को सुनकर उसी स्थान पर स्थित कुत्ता ने, जो कि मेरी पूर्वजन्म की माता थी, दौड़कर मुझे पकड़ लिया। मुझे (कुत्ते के द्वारा) पकड़ा हुआ देखकर हाय-हाय का शब्द करते हुए राजा ने कुत्ते पर कील के टुकड़े से प्रहार किया। प्रहार से विह्वल अंगों वाले उसने खून का वमन करते हुए मुझे छोड़ दिया । कण्ठगत प्राण वाले हम दोनों पृथ्वी पर गिर पड़े। राजा शोक को प्राप्त हुआ । उसने, पुरोहित जिनमें प्रमुख था, ऐसे मनुष्यों को आज्ञा दी १. विक्खया इमए । तेहि विय रइसंगमवियलिएहिं भूसणेहि पहओ अहं । पहारविहलो । २. अक्खपाडणं-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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