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________________ २९६ (समापकहा महतो सक्कारो कओ, सोग्गइनिबंधणाई दिन्नाई महादाणाई, तहा एयाण वि उवरयाण कायव्वं ति। एयमायण्णिऊण चितियं मए । अहो णु खलु पुत्तएणं सव्वसकारो पाविओ, दिन्नाई णे सोग्गनिबंधणाई दाणाई, अहं पुण तिरिक्खजोणीए वि अब्वोच्छिन्नाए छुहाए किमिए खायंतो सुणएहि य खज्जमाणो चिट्ठामि । अहो गरुयया कम्माणं । एवं चिंतयंतस्स विमुक्कं सरीरयं जीविएणं । तओ अहं देवाणप्पिया, सुवेलपव्वयावरदिसाभाए अत्थि दुप्पवेसं नाम वणं, तम्मि य उवभोगजोग्गपल्लवपुप्फफलच्छाहिउदगपन्भट्ठ'। सीयन्नि-घोडि-बब्बल - कयर-ख इराइसंकिणे ॥३९६॥ ताड-वड-खंज-खज्जण-सुक्कतरुगहीरदुक्खसंचारे । विविहविसविडविनिग्गयवंकुडतिक्खग्गकंटइए ॥३६७॥ एयारिसम्मि य वणे नीसेसं चिय निराभिरामम्मि। काणपसतोए गब्भे जणिओऽहं कुंटपसएणं ॥३९८॥ काठमहान् सत्कारः कृतः, सुगतिनिबन्धनानि दत्तानि महादानानि तथा एतयोरपि उपरतयो कर्तव्यमिति । एतदाकर्ण्य चिन्तितं मया-अहो नु र लु पुत्रेण सर्वसत्कारः प्रापितः, दत्तानि आवयोः सुगतिनिबन्धनानि दानानि, अहं पुनस्तिर्यग्योनावपि अव्युच्छिन्नया क्षुधा कृमीन खादन् शनकैश्च खाद्यमानस्तिष्ठामि । अहो गुरुकता कर्मणाम् । एवं चिन्तयतो विमुक्तं शरीरं जीवितेन । ततोऽहं देवानुप्रिय ! सुवेलपर्वतापरदिग्भागेऽस्ति दुष्प्रवेशं नाम वनम् । तस्मिश्च उपभोगयोग्यपल्लवपुष्पफलछायोदकप्रभ्रष्टे । श्रीपर्णी-घोटी(वदरी)बब्बल-करीर-खदिरादिसंकोण ॥३६६।। ताड-बट-खज्ज-खजन-शुष्कतरु(अगुरु)गभीरदुःखसंचारे । विविधविषविटपिनिर्गतवक्रतीक्ष्णाग्रकण्टकिते ।।३६७॥ एतादृशे च वने निःशेषमेव निरभिरामे । काणपसय्या गर्भे जनितोऽहं कुण्टपसयन ॥३६॥ कि पिता जी और माता जी के मरने पर जैसे काला अगुरु, लौंग और चन्दन की लकड़ी से जैसे महान सरकार किया था, उसी प्रकार इन मृत प्राणियों का भी सत्कार करना चाहिए। इसे सुनकर मैंने सोचा-ओह पुत्र ने सब सत्कार किये, हम दोनों की सद्गति के कारण दान दिये और मैं तिर्यच योनि में भी भूख की तृप्ति न होने के कारण कीड़े-मकोड़ों को खाता हुआ और कुत्ते से खाया जाता हुआ विद्यमान हूँ। कर्मों की महत्ता आश्चर्यकारक है, इस प्रकार विचार करते हुए शरीर से प्राणों को छोड़ दिया। ___ अनन्तर हे देवानुप्रिय ! सुवेल नामक पर्वत की पश्चिम दिशा में दुष्प्रवेश नाम का वन है । उसमें मैं 'काणप सय्या' के गर्भ में 'कुष्टपसय' के रूप में आया। वह वन पूरी तरह से असुन्दर था। वह उपभोग के योग्य पत्ते, फूल, फल, छाया और जल रहित था। श्रीपणी (कट्फल, शाल्मली, अग्निमन्थ वृक्ष), बेर, बबूल, करील और खैर के वृक्षों से वह व्याप्त था। ताड़, बरगद, खज्ज, खंजन और अंगुरु वृक्षों की सघनता से उसमें दुःख से प्रवेश किया जा सकता था। अनेक प्रकार के विष के पौधों से निकलते हुए टेढ़े और नुकीले कांटों से कण्टकित था ॥३६६-३६८।। - क-ग, ३. वच्छल-ग, दफ्छू नख, ४. ख इरोलिसं.-ख, खइरातिसँ... १. छाहर "-ख, २. सीयल्लि सुखनवरय-"क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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