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[समराइच्चकहा तओ अहमहाउयं पालिऊण देवलोगाओ चुओ समाणो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रहवीरउरे नयरे नंदिबद्धणस्त गाहावइस्स सुरसुंदरीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नो म्हि । इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिऊण विझगिरिपब्धए अणेगसत्तवावायणपरो सीहत्ताए उववन्नो। तओ सोहत्ताए उववज्जिऊण पुणो वि मरिऊण सत्तसागरोवभाऊ तत्थेव उववज्जिय तओ य उव्वट्टो नाणातिरिएसु आहिडिय तत्थेव नयरे सोमसत्यवाहस्स नंदिमईए भारियाए पुत्तत्ताए उववन्नो त्ति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे, पत्ता बालभावं । पइट्ठावियाइं नामाई मज्झं अणंगदेवो, इयरस्स धणदेवो त्ति । आबालभावओ जाया पिई मम सब्भावओ, इयरस्स कहवएणं । कुमारभावम्मि य पत्तो मए देवसेणगुरुसमीवे सव्वन्नुभासिओ धम्मो । पत्ता य जोव्वणं । संते विय पुव्वपुरिसज्जिए दविणजाए अभिमाणओ 'किमणेण पुवपुरिसज्जिएणं' ति दव्वसंगहनिमित्तं गया रयणदीवं । विढत्ताइं रयणाई, कया संजुत्ती, पयट्टा नियदेसमागंतुं। एत्यंतरम्मि य पुवकयकम्मदोसेण चितियं धणदेवेण- कहं पुणो वंचियव्वो एस अणंगदेवो । वियप्पिया य तेणं अणेगे मिच्छावियप्पा । ठाविओ सिद्धंतो। अवावाइओ
यथाऽऽयुः पालयित्वा देवलोकात् च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रथवीरपुरे नगरे नन्दिवर्द्धनस्य गाथापतेः सुरसुन्दर्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नोऽस्मि । इतरोऽपि च ततो नरकादुवृत्त्य विन्ध्यगिरिपर्वते अनेकसत्त्वव्यापादनपरः सिंहतयोपपन्नः । ततः सिंहतयोपपद्य पुनरपि मृत्वा सप्तसागरोपमायुस्तत्रैवोपपद्य ततश्चोद्वत्तो नानातिर्यक्षु आहिण्ड्य तत्रैव नगरे सोमसार्थवाहस्य नन्दिमत्यां भार्यायां पुत्रतयोपपन्न इति । उचितसमये जातावावाम्, प्राप्तौ बालभावम् । प्रतिष्ठापिते नाम्नी-ममानङ्गदेवः, इतरस्य धनदेव इति । माबालभावात् जाता प्रीतिर्मम सद्भावतः, इतरस्य कैतवेन । कुमारभावं च प्राप्तो मया देवसेनगुरुसमीपे सर्वज्ञभाषितो धर्मः । प्राप्तौ च यौवनम् । सत्यपि पूर्वपुरुषसमजिते द्रविणजाते अभिमानतः 'किमनेन पूर्वपुरुषसमजितेन' इति द्रव्यसंग्रह निमित्तं गतौ रत्नद्वीपम् । अजितानि रत्नानि, कृता संयुक्तिः, प्रवृत्ता निजदेशमागन्तुम् । अत्रान्तरे च पूर्वकृतकर्मदोषेण चिन्तितं धनदेवेन-कथं पुनर्वञ्चयितव्य एषोऽनङ्गदेवः । विकल्पिताश्च तेनानेके मिथ्याविकल्पाः । स्थापितः सिद्धान्तः । अव्यापादित एष न पार्यते वञ्चयितुम्
हुआ। अनन्तर मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष के 'रथवीरपुर' नगर में नन्दिवर्द्धन गृहस्थ गाथापति की सुरसुन्दरी नामक पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया। दूसरा भी नरक से निकलकर विन्ध्यगिरि पर अनेक प्राणियों को मारने वाले सिंह के रूप में उत्पन्न हुआ। सिंह के रूप में उत्पन्न होकर पुनः मरकर सात सागर की आयु वाले उसी बालुकाप्रभा नरक में उत्पन्न होकर, वहाँ से निकलकर नाना तिर्यंच योनियों में भ्रमणकर, उसी नगर के सोम व्यापारी की नन्दिमती स्त्री के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए। बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। दोनों के नाम--मेरा 'अनंगदेव' और दूसरे का 'धनदेव' रखा गया। बाल्यावस्था से उसके प्रति मेरी प्रीति सद्भाव से और उसकी छल-कपट से हुई । कुमारावस्था प्राप्त होने पर मैंने देवसेन गुरु के समीप सर्वज्ञभाषित धर्म पाया। यौवनावस्था को प्राप्त हुआ। पूर्वजों द्वारा अर्जित धन होने पर भी अभिमानवश-पूर्वजों द्वारा अजित धन से हमें क्या ? ऐसा सोचकर धनसंग्रह के लिए दोनों रत्नद्वीप गये । रत्नों का अर्जन किया और इकट्ठा कर अपने देश को आने में प्रवृत्त हो गये। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष के कारण धनदेव ने विचार किया-यह अनंगदेव इस धन से कैसे वंचित किया जाय ? उसने अनेक झूठे विकल्प किये । सिद्धान्त स्थापित किया कि इसे बिना मारे नहीं ठगा जा सकता
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