SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५ बीओ भवो ] एस न तीरए वंचिउं ति, ता वावाएमि एवं । परिचितिओ उवाओ 'भोयणे से विसं देमि' त्ति । अन्ना सत्यमसन्निवेस मणुपत्ताणं भोयगनिमित्तं गो धणदेवो हट्टमगं । कारावियं च तेण भोयगं, पक्खित्तं च एगम्मि लड्डुगे' त्रिसं । चितियं च ते एयं से दाहामि त्ति । आगच्छंतस्स अणेगवियपावहरियचित्तस्स संजाओ विवज्जओ । भोयणवेलाए गहिओ तेण विसलड्डुगो, दिन्नो ममं च इयरोति । पभुत्ता अम्हे जाव थेववेलाए चैव थारिओ धणदेवो । तओ 'किमेयं ति आउलीहूओ अहं जाव किंकायव्वमूढो थेवकालं चिभि, ताव अच्चुग्गयाए विसस्स विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स उवरओ धणदेवो । जाया चिता - ' हा केण उण एवं ववसियं' त्ति । तओ अमुणियवृत्तंतो महासोयाभिभूयमाणसो आगओ सनयरं । सिट्टो वुतो तस्स माणुसाणं । विइण्णं च ते स अमहिययरं रयगजायं । ससरयणजायं पिय जहाणुरूवं कुसलपक्खे निउज्जिऊण तन्निव्वेएण चेव तयभिमन्नायविसयसंगो पवन्नो देवसेणायरियसमीवे पव्वज्जं ति । परिवालिऊण अहाउयं विहिणा य मोतूण देहं पाणमि कथ्ये उववन्नो एगूणवीस सागरोवमाऊ देवो त्ति, इयरो वि विसमरणानंतरं I इति, ततो व्यापादयामि एतम् । परिचिन्तितश्वोपायः 'भोजने तस्य विषं ददामि' इति । अन्यदा च स्वस्तिमतिसन्निवेशमनुप्राप्तयोर्भोजननिमित्तं गतो धनदेवो हट्टमार्गम् । कारितं च तेन भोजनम्, प्रक्षिप्तं चैकस्मिन् लड्डुके विषम् । चिन्तितं च तेन - 'एतं तस्य दास्यामि' इति । आगच्छतोऽनेकविकल्पापहृतवितस्य संजातो विपर्ययः । भोजनवेलायां तेन गृहीतो विषलड्डुकः, दत्तश्च मह्यमितर इति । प्रभुक्तावावां यावत्स्तोकवेलायामेव स्तारितो धनदेवः । ततः 'किमेतद्' इति आकुलो भूतोऽहं यावर्ति स्तोककालं तिष्ठामि तावदत्युग्रतया विषस्य विचित्रतया कर्मपरिणामस्योपरतो धनदेवः । जाता मे चिन्ता - हा ! केन पुनरेतद् व्यवसितम् इति । ततोऽज्ञातवत्तान्तो महाशोकाभिभूतमानस आगतः स्वनगरम् । शिष्टो वृत्तान्तस्तस्य मानुषाणाम् वितीर्णं च तेभ्योऽधिकतरं रत्नजातम् । शेषरत्नजातमपि च यथानुरूपं कुशलपक्षे नियुज्य तन्निवेदेनैव तत्प्रभृति अज्ञातविषयसङ्गः प्रपन्नो देवसेनाचार्यसमीपे प्रव्रज्यामिति । परिपाल्य यथाssयुर्विधिना च मुक्त्वा देहं प्राणते कल्पे उपपन्न एकोनविंशतिसागरोपमायुर्देव इति इतरोऽपि विषमरणानन्तरं पङ्कप्रभायां पृथिव्यां नवसागरोपमायुर्नारक इति । ततोऽहं यथाऽऽयुरअतः इसको मारता हूँ । उपाय सोचा कि इसे भोजन में विष दूंगा। एक बार जब हम स्वस्तिमती सन्निवेश में पहुँच गये तो भोजन की प्राप्ति के लिए धनदेव बाजार के रास्ते की ओर गया । उसने भोजन बनवाया और एक लड्डू में विष डाल दिया । उसने सोचा - इसे उसे दे दूँगा । आते हुए अनेक विकल्पों के कारण जिसका चित्त हरा गया है, ऐसे उसका उल्टा ध्यान हो गया - भोजन के समय उसने तो विष का लड्डू ले लिया और मुझे दूसरा दे दिया । भोजन करने के थोड़ी ही देर बाद धनदेव बिस्तर पर पड़ गया । तब यह क्या हुआ ! इस प्रकार आकुल व्याकुल मुझको किंकर्तव्यविमूढ़ हुए थोड़ा ही समय बीता था कि विष की तीक्ष्णता से और कर्मपरिणाम की विचित्रता से धनदेव चल बसा। मुझे चिन्ता हुईं-हाय ! ये किसने किया ? तब वृत्तान्त को न जानकर महान् शोक से अभिभूत होकर अपने नगर आया। उसका वृत्तान्त उसके मनुष्यों (घरवालों) से कहा और उन्हें अधिक रत्न दिये । शेष रत्नों को भी यथायोग्य शुभकार्य में लगाकर उससे विरक्त हो तभी से विषय सुख का अनुभव न कर देवसेनाचार्य के समीप मैंने दीक्षा ले ली। आयु पूरी कर और विधिपूर्वक शरीर छोड़कर प्राणत स्वर्ग में उन्नीस सागर की आयुवाला देव हुआ, दूसरा भी विष से मरण होने के बाद पंकप्रभा पृथ्वी में १. लगे, ९. विसलट्टु गो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy