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समराइच्चकहा ] कम्ससेन्नं, तिष्णो भवसमुद्दो, पाविया सासयसिवसुहसिद्धि ति। तओ मए चितियं-आविम्भूयं नणमेएसि केवलं, मुक्का जाइजरामरणदुक्खवासस्स । एत्यंतरम्मि दिट्ठा मए केवलपहावओ च्चिय रयणमयसीहासणोवविट्ठा, विणियट्टभवपवंचा, पसंतचित्तवावारा, केवलसिरीसमद्धासियसरीरा, मत्तिमंता विव गुणगणा भयवंतो साहूणो ति । तओ मए चितियं-न एत्थ संदेहो, संपुण्णमेव एएसिं केवलनाणं ति। तओ आणंदबालजलभरियलोयणेणं, रोमंचपुलइयंगणं विम्हयवसुप्फुल्ललोयणेणं, धरणिनिमियजाणुकरयलेणं तहाविह अच्चंतसोहणं, अणाचिक्खणीयं अवत्थंतरमणहवंतेण वंदिया मए वंदिऊण य उवविठ्ठो तेसिं पुरओ। पत्थुया केवलिणा कहा। पयत्ता पुच्छिउ' हियइच्छ्यिं देवनरगणा।
तओ मए चितिय--कि पुणो अहमेए भयवंते पुच्छामि ? जाव आवडिओ हिययसल्लभूओ चित्तम्मि मे विहावस । तओ मए चितिय-'अह कहिं पुण मे मित्तो विहावस उप्पन्नो हाउ एय पुच्छामि त्ति चितिऊण पुच्छिओ मए भयवं केवली। भयवं ! अत्थि इओ कोइ कालो पंचत्तमुवकर्मसैन्यम्, तीर्णः भवसमुद्रः, प्राप्ता शाश्वतशिवसुखसिद्धिरिति । ततो मया चिन्तितम्-आविर्भूतं ननमेतेषां केवलम्, मुक्ता जाति-जरा-मरणदुःखवासस्य (वासात्) । अत्रान्तरे दृष्टा मया केवलप्रभावत: एव रत्नमयसिंहासनोपविष्टाः, विनिवृत्तभवप्रपञ्चाः, प्रशान्तचित्तव्यापाराः, केवलश्रीसमुद्धातिशयशरीराः, मतिमन्त इव गुणगणा भगवन्तः साधव इति । ततो मया चिन्तितम्-न अत्र सन्देहः, सम्पर्णमेव एतेषां केवलज्ञानमिति । तत आनन्दवाष्पजलभृतलोचनेन, रोमाञ्चपुलकिताङ्गेन, विस्मयवशोत्फल्ललोचनेन, धरणिनिमितजानुकरतलेन, तथाविधम् अत्यन्तशोभनम् अनाख्यानीयम् अवस्थान्तरमनुभवता वदिन्ता मया, वन्दित्वा च उपविष्टस्तेषां पुरतः। प्रस्तुता केवलिना कथा । प्रवृत्ताः प्रष्टुं हृदयेष्टं देवनरगणाः ।
- ततो मया चिन्तितम-किं पुनरहम् एतान् भगवतः पृच्छामि? यावद् आपत्तितो हृदयशल्यभतश्चित्ते मम विभावसः । ततो मया चिन्तितम् 'अथ कुत्र पुनर्मम मित्रं विभावसु उत्पन्नो भवेत् एतत् पच्छामि इति चिन्तयित्वा पृष्टो मया भगवान् केवली। भगवन् ! अस्ति इत कश्चित् कालः पञ्चत्वसमट को आपने पार कर लिया है और शाश्वत मोक्षसुख की सिद्धि को प्राप्त कर लिया है। तब मैंने विचार किया-निश्चित रूप से इनको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। ये जन्म-जरा-मरणरूप दु:ख के निवास से मुक्त हो गये हैं। इसी बीच मैंने भगवन्त साधुओं को देखा । केवलज्ञान के प्रभाव से वे रत्नमय सिंहासन पर बैठे थे। स पी जंजाल से वे अलग हो गये थे। उनके चित्त के व्यापार शान्त थे। केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी की समद्धि के अतिशय से युक्त उनके शरीर थे और वे मानो गुणों के समूह की मूर्ति थे। तब मैंने विचार किया-इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनका केवलज्ञान सम्पूर्ण है । तब मैंने घुटनों और हथेलियों को धरती से लगाकर उनकी वन्दना की। उस समय आनन्द से उत्पन्न आँसुओं से मेरे नेत्र भरे हुए थे, रोमांच से अंग पुलकित हो रहा था, आश्चर्य के कारण मेरे नेत्र फैले हुए थे, उस प्रकार की अत्यन्त शोभनीय अनिर्वचनीय अवस्था का मैं अनुभव कर वन्दना करके उनके समक्ष बैठ गया। केवली ने कथा प्रस्तुत की। देव और मनुष्य अपने हृदय की इष्ट कथा पूछने में प्रवृत्त ए।
तब मैंने विचार किया-इन भगवान् से मैं क्या पूछू ! तभी मेरे चित्त में हृदय का शल्यभूत विभावसु आया। तब मैंने विचार किया- 'मेरा विभावसु कहाँ उत्पन्न हुआ होगा, यह पूछता हूँ।' ऐसा सोचकर मैंने भगवान् केवली से पूछा-'यहां से कुछ समय पहले मेरा मित्र मृत्यु को प्राप्त हो गया । वह कहाँ पर उत्पन्न हुआ होगा ? इस १. पुच्छिउं, २. चितियं, ३. भयवंतो, ४. एयं ।
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