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________________ २४२ [समराइच्चकहा धणसिरी य कइयवेणं । धणेण भणियं-वयंस नंदय, न एस कालो विसायस्स, ता अवलंबेहि पोरस, उज्झेहि काउरिसबहुमयं किलीवत्तणं, नियमेहि नियहिययम्मि कालोचियं कज्जं। सुंदरि, तुमं पि परिच्चय इत्थीयणहिययरायहाणिसोयं, विसुमरेहि चितायासकारिणं सिणेहं, अवलंबेहि कज्ज। एत्थ खलु सो पुरिसो इत्थिया वा पसंसिज्जइ, जो कालन्नू । कालन्नू य संतो उच्छाहवंतो अवस्समावयं लंघइ ति।। तओ पडिवन्नमणेहिं धनसासणं। पत्ताणि महाकडाहं नाम दीव । गओ नंदओ घेत्तूण पाहुडं नरवइमवलोइउं । बहुमन्निओ राइणा। दिन्नमावासत्थामं । ओयारियं भंडं । उवणीया धणस्स वेज्जा। पारद्धो उवक्कमो । तख्जोगदाणओ न य से वाहो अवेइ । तओ चितियं नंदएणं । न नियदेसमपत्तस्स इमस्स एस वाही अवेइ ति, तओ न जुत्तमिह कालमक्खिविउं । तओ निओइयं भंडं, गहियं च पडिभंडं, सज्जियं जाणवत्तं । दिट्ठो नरवई, संपूइओ तेण । पयट्टो नियदेसमागंतुं। अइक्कतेसु कइवयपयाणएसु' चितियं धणसिरीए। कहं न विवन्नो एसो। सदेसमबगयाए य दुल्लहो एयस्स वावायणोवाओ, जोवमाणो य एसो निच्च मे हिययसल्लभूओ त्ति। ता इमं कैतवेन । धनेन भणितम्-वयस्य नन्दक ! न एष कालो विषादस्य, ततोऽवलम्बस्व पौरुषम्, उज्झ कापुरुषबहुमतं क्लीवत्वम्, नियमय निजहृदये कालोचितं कार्यम्। सुन्दरि ! त्वमपि परित्यज स्त्रीजनहृदय राजधानीशोकम्, विस्मर चिन्ताऽऽयासकारिणं स्नेहम्, अवलम्बस्व कार्यम् । अत्र खलु स पुरुषः स्त्री वा प्रशस्यते यः कालज्ञः । कालज्ञश्च सन् उत्साहवान् अवश्यमापदं लङ्घयतीति । ततः प्रतिपन्नमाभ्यां धनशासनम् । प्राप्ता महाकटाहं नाम द्वोपम् । गतो नंदको गहीत्वा प्राभृतं नरपतिमवलोकितुम् । बहु मतो राज्ञा । दत्तमावासस्थानम् । अवतारितं भाण्डम् । उपनोता धनस्य वैद्याः । प्रारब्ध उपक्रमः । तद्योगदानतो न च तस्य व्याधिरपैति । ततचिन्तत नन्दकेन । न निजदेशमप्राप्तस्यास्य एष व्याधिरपैतीति, ततो न युक्तमिह कालमाक्षप्तुम् । ततो नियोजितं (विक्रीतं) भाण्डम्, गृहीतं च प्रतिभाण्ड, सज्जितं यानपात्रम्, दृष्टो नरपतिः, सम्पूजितस्तेन, प्रवृत्तो निजदेशमागन्तुम् । ___ अतिक्रान्तेषु कतिपयप्रयाणकेषु चिन्तितं धनश्रिया । कथ न विपन्न एषः । स्वदेशमुपगतया च दुर्लभ एतस्य व्यापादनोपायः । जीवंश्च एप नित्य मे हृदय शल्यभूत इति । तत इदमत्र प्राप्तकालम् । धन ने कहा-"मित्र नन्दक!यह समय विषाद का नहीं है, अत: पौरुष का अवलम्बन करो। कायर पुरुषों के द्वारा सम्मानित नपुंसकता को छोड़ो। अपने हृदय में समयोचित कार्य का निश्चय करो। सुन्दरी ! तुम भी स्त्रियों के हृदय की राजधानी रूप शोक को छोड़ो, चिन्ता और परिश्रम के कारणभूत स्नेह को भूल जाओ, कार्य का अवलम्बन करो। ऐसे मौके पर तो वही स्त्री अथवा पुरुष प्रशंसनीय होता है जो समय को जानने वाला हो। उत्साही व्यक्ति, समय को जानता हुआ अवश्य ही आपदाओं को लाँघ जाता है ।" अनन्तर इन दोनों ने धन की आज्ञा मान ली। महाकटाह द्वीप पर आये । नन्दक भेंट लेकर राजा का दर्शन करने गया। राजा ने सम्मान दिया, रहने का स्थान दिया। माल को उतारा। धन के लिए वद्य लाये गये। इलाज शुरू हआ। उनके इलाज से इसका रोग दूर नहीं हआ। तब नन्दक ने सोचा-बिना अपने देश को पहुँचे इसका रोग दूर नहीं होता अत: यहां पर समय गँवाना ठीक नहीं है। अनन्तर माल को बेचा और उसके बदले दूसरा माल लिया, जहाज में किये, उसने आदर किया, अपने देश को आने के लिए चल पड़े । कुछ रास्ता तय करने के बाद धनश्री ने सोचा- यह क्यों नहीं मरा। अपने देश में पहुँचकर इसके मारने का उपाय दुर्लभ हो जायगा । जीता हुआ यह नित्य मेरे लिए शल्य के समान है । अब यह समय आ गया है। यह 1. दिये हेसु-ख, २. णिच्चमेव-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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