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पडत्यो भवो]
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एत्थ पत्तकालं'। ठाइ चेव एसो पादक्खालयम्मि रयणीए, तओ इमम्मि चेव जलयरसत्तभासुरे सायरे पक्खिवामि त्ति । पक्खित्तो य एसो चवलभावओ जाणवत्तस्स अंधयारयाए रयणीए तहन्भट्ठो चेव निस्संसयं न भविस्सइ । एवं च कए समाणे एसो वि नंदओ मे सासओ भविस्सइ त्ति चितिऊण संपाइयं धणसिरीए जहासमोहियं । पक्खित्तो जमावसेसाए रयणीए पादक्खालयनिमित्तमुट्ठिओ पायालगंभीरे समुद्दम्मि सत्थवाहपुत्तो। ठिया कंचि कालं । कओ तीए हाहारवो । उढिओ नंदओ। पुच्छिया एसा 'सामिणि ! किमेयं किमयं' ति । तओ सा अत्ताणमणुताडयंती सदुक्खमिव अहिययरं रोविउं पवत्ता। 'हा अज्जउत्त हा अज्जउत्त' त्ति भणंती निवडिया धरगिवढे । तओ नंदएण संजायासंकेण सत्थवाहपुत्तसेज्जं निरूविय तमपेक्खमाणेण सगग्गयक्रं पुणो वि वाहित्ता 'सामिणि, किमेयं किमेयं' ति । धणसिरीए भणियं-एसो खु अज्जउत्तो आयमणनिमित्तमुट्टिओ पमायओ समुद्दे निवडिओ त्ति। तओ एयमायण्णिऊण बाहजलभरियलोयणो तन्नेहमोहियमई तम्मि चेव अत्ताणयं पक्खि विउमाढत्तो नंदओ, धरिओ परियणेण। तओ अच्चंतसोयाणलजलियमाणसो 'न एत्थ उवायंतरं कमइ' त्ति तिष्ठत्येव एष पादक्षालने रजन्याम्, ततोऽस्मिन्नेव जलचरसत्त्वभासुरे सागरे प्रक्षिपामोति । प्रक्षिप्तश्च एष चपलभावतो यानपात्रस्य अन्धकारतया रजन्यां तयाभ्रष्ट एव निःसंशयं 'एवं च कृते सति एषोऽपि नंदको मे शाश्वतो भविष्यति' इति चिन्तयित्वा सम्पादितं धनश्रिया यथासमोहितम् । प्रक्षिप्ता यामावशेषायां रजन्यां पादक्षालननिमित्तमुत्थितः पातालगम्भोरे समुद्रे सार्थवाहपुत्रः । स्थिता कञ्चित्कालम् । कृतस्तया हाहारवः । उत्यितो नन्दकः । पृष्टैषा-'स्वामिनि ! किमेतद् कि प्रेतद्' इति । ततः साऽऽत्मानमनुताडयन्ती सदुःखमिव अधिकतरं रोदितुं प्रवृत्ता । 'हा आर्यपुत्र!हा आर्यपुत्र!' इति भणन्ती निपतिता धरणीपृष्ठे । ततो नन्दकेन सजाताशङ्कन सार्थवाहपुत्रशय्यां निरूप्य तमप्रेक्षमाणेन सगद्गदाक्षरं पुनरपि व्याहृता 'स्वामिनि ! किमेतद् किमेतद्' इति । धनश्रिया भणितम्-एष खलु आर्यपुत्र आचमननिमित्तमुत्यितः प्रमादतः समुद्रे निपतित इति । तत एवमाकर्ण्य वाष्पजलभृतलोचनस्तत्स्नेहमोहितमतिस्तस्मिन्नेवात्मानं प्रक्षिप्तुमारब्धो नन्दकः । धृतः परिजनेन । ततोऽत्यन्तशोकानलज्वलितमानसः 'नात्रोपायान्तरं क्रमते' इति विषण्णः । धारितस्तेन
पैर धोने के लिए रात में बैठता है अत: जलचर जीवों से देदीप्यमान समुद्र में इसे फेंक दूंगी। फेंकने पर जहाज की तेजी तथा रात्रि के अन्धकार के कारण यह गिरते ही निःसन्देह रूप से मर जायेगा। ऐसा करने पर यह नन्दक भी मेरे लिए सदा का हो जायगा -ऐसा सोचकर धनश्री ने इष्टकार्य कर लिया। रात्रि का प्रहर मात्र शेष रह जाने पर जब वणिक्पुत्र पैर धोने के लिए उठा तो इसने पाताल के समान गहरे समुद्र में फेंक दिया। कुछ देर तक ठहरी । (अनन्तर) उसने हाहाकार किया। नन्दक उठा। इसने पूछा-"स्वामिनि ! यह क्या है ? क्या है ?" तब वह अपने को पीटती हुई मानो दु:खी हो रही हो, और अधिक रोने लगी। 'हाय आर्यपुत्र!हाय आर्यपुत्र !' इस प्रकार कहती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब नन्दक ने आशंकित होकर वणिकपुत्र की शैया को देखकर तथा उसे न पाकर गद्गद अक्षरों में पुनः कहा-"स्वामिनि!यह क्या है ? यह क्या है?" धनश्री ने कहा"यह आर्यपुत्र पानी पीने के लिए उठे थे, प्रमादवश समुद्र में गिर पड़े।" यह सुनकर आँखों में आँसू भरकर उसके स्नेह से मोहित बुद्धिवाला नन्दक अपने आपको गिराने लगा। परिजनों ने पकड़ लिया । अनन्तर अत्यधिक दुःखरूपी अग्नि में जिसका मन जल रहा है-ऐसा नन्दक 'यहाँ पर दूसरा कोई उपाय नहीं किया जा सकता है, यह
१. पत्तयालं-ख, २. पाउक्खा ...-।
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