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[ समराइच्चकहा
कोलियं मा सरीरखेदो भविस्सइ ता लहुं आगंतव्वं ति ।' तो सा 'जं अम्मा आणवेइ' त्ति भणिऊण सभमं कुमारमवलोएंती निग्गया उज्जाणाओ, पत्ता य कुमारं चेव चितयंती निययगेहं । तओ देवि पण मऊणमारूढा दंतबलहियं ( शयनगृहविशेषः) । तओ कुमारं चेव अणुसरती विमुक्कदीहनीसासा समु विट्ठालंकसयणिज्जे, विसज्जिओ य तीए संमाणिउं सही सत्थो ।
अह सेविउं पयत्ता सेज्जं अणवरयमुक्कनीसासा । मयणसरसल्लियमणा नियकज्ज नियत्तवावारा ॥१२१॥ नालिहइ चित्तकम्म न चांगरायं करेइ कर णिज्जं । नाहिलसा आहारं अहिणंदइ नेय नियभवणं ॥ १२२ ॥ चिरपरिचियं पि पोढइ नेय सुयसारियांण संघायं । कीलावेइ मणहरे चडुले न च भवणकलहंसे ॥ १२३ ॥ विहरइ न हम्मियतले मज्जइ न य गेहदीहियाए उ । सारेइ नेय वीणं पत्तच्छेज्जं पिन करेइ ॥ २२४॥
कुमारमभिनन्द्य भणितं संभरायणेन । 'वत्से ! कुसुमावलि, देवी मुक्तावली आज्ञापयति, अतिचिरं कोडितं मा शरीरखेदो ते भविष्यति, तस्माद् लघु आगन्तव्यं इति । ततः सा 'यदम्बा आज्ञापयति' इति भणित्वा ससम्भ्रमं कुमारमवलोकयन्ती निर्गता उद्यानात् प्राप्ता च कुमारमेव चिन्तयन्ती निज गेहम् । ततो देवीं प्रणम्य आरूढ़ा दन्तवलभिकां । ततः कुमारमेव अनुसरन्ती विमुक्तदीर्घनिः श्वासा समुपविष्टा पल्यङ्कशयनीये, विसज्जितश्च सम्मान्य सखोसार्थः ।
अथ सेवितुं प्रवृत्ता शय्यां अनवरतमुक्तनिःश्वासा | मदनशरशल्यितमनाः निजकार्यंनिवृत्तव्यापारा ॥१२१॥ नाखिति चित्रकर्म न चाङ्गरागं करोति करणीयम् । नाभिलषति आहारम् अभिनन्दति नैव निजभवनम् ॥ १२२ ॥ चिरपरिचितमपि पाठयति नैव शुकसारिकानां संघातम् । क्रीडयति मनोहरान् चटुलान् न च भवनकलहंसान् ॥ १२३॥ विहरति न हर्म्यतले मज्जति न च गेहदीर्घिकायां तु । सारयति नैव वीणां पत्रच्छेद्यमपि न करोति ॥ १२४ ॥
बहुत देर तक खेलने से तुम्हारा शरीर थक न जाय, अतः जल्दी आओ ।" तदनन्तर वह 'माता जी की जैसी आज्ञा है' ऐसा कहकर घबड़ाहट के साथ कुमार को देखती हुई उद्यान से निकल गयी और कुमार के विषय में ही सोचती हुई अपने घर पहुँची । अनन्तर महारानी को प्रणामकर दन्तवलभिका (एक प्रकार के शयनगृह) में आरूढ़ हुई । पश्चात् कुमार का ही स्मरण करती हुई, लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई पलंग के विस्तर पर बैठ गयी और उसने सखियों के समूह को आदर के साथ विदा कर दिया ।
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अनन्तर निरन्तर लम्बे-लम्बे श्वास छोड़ती हुई, शय्या का सेवन करने लगी। उस समय उसका मन कामदेव के बाणों से विद्ध हो गया था। अपने कार्यों को उसने छोड़ दिया था। न तो चित्र ही बनाती थी, न अंगराग लगाती थी । आहार की इच्छा नहीं करती थी और अपने भवन का अभिनन्दन नहीं करती थी । चिरपरिचित भी शुक और सारिकाओं के समूह को नहीं पढ़ाती थी। भवन के मनोहर और चंचल कलहंसों से भी नहीं खेल करती थी। न महल की छत पर घूमती थी, न घर की बावड़ी में स्नान करती थी, वीणा नहीं बजाती थी, न पत्रच्छेद्य कर्म (नक्काशी) ही करती थी ।। १२१-१२४ ॥
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