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[समराइच्चकहा वइयरमवलोइऊण विसण्णो राया। चितियं च णेणं, हंत ! एवं ववत्थिए को' उण इह उवाओ? गसियप्पाओ कुररो अयगरेण, कुररेण वि भुयंगमो, भुयंगमेण मडुक्को त्ति कंठगयपाणा वि एते न अन्नोन्नं विरमंति, अवि य अहिययरं पवत्तंति, न यं अन्नयरविणासणाए मोयाविया एए संपयं जीवंति। ता कि इमिणा अपडियारगोयरेण वत्थुणा एलोइएणं। तज्जाविओ मत्तवारुणो, गओ आवासणियाभूमि, आवासिओ सह कडएणं, कयं उचियकरणिज्जं। तओ अद्धखीणाए जामिणीए सुत्तविउद्धो राया। अयगराइवइयरं सरिऊण चितिउं पयत्तो । कहं
आवायमेत्तमहरा विवागविरसा विसोवमा विसया। अवुहजणाण बहुमया विबुहजणविवज्जिया पावा ॥२०६॥ एयाणमेस लोओ कएण मोत्तूण सासयं धम्म। सेवेइ जीवियत्थी विसं व पावं सुहाभिरओ॥२०७॥ दुक्खं पावस्स फलं नासओ पावस्स दुक्खिओ निच्चं ।
सुहिओ वि कुणउ धम्मं धम्मस्स फलं वियाणंतो ॥२०॥ वलोक्य विषण्णो राजा। चिन्तितं च तेन, हन्त ! एवं व्यवस्थिते कः पून रिहोपायः ? ग्रसितप्रायः कररोऽजगरेण, कुररेणापि भुजङ्गमः, भुजङ्गमेनापि मण्डूक इति । कण्टगतप्राणा अप्येते नान्योन्यं विरमन्तिः अपि चाधिकतरं प्रवर्तन्ते, न चान्यतर विनाशनया मोचिता एते साम्प्रतं जीवन्ति । तकिमनेनाप्रतीकारगोचरेण वस्तुना प्रलोकितेन । तद्यापितो मत्तवारणः, गत आवसनिकाभूमिम्, आवासितः सह कटकेन, कृतमुचितकरणीयम् । ततोऽर्धक्षीणायां यामिन्यां सुप्तविबुद्धो राजा। अजगरादिव्यतिकरं स्मृत्वा चिन्तयितु प्रवृत्तः । कथम्
आपातमात्रमधुरा विपाकविरसा विषोपमा विषयाः। अबुधजनानां बहुमता विबुधजनजिताः पापाः ॥२०६।। एतेषामेव लोकः कृतेन मुक्त्वा शाश्वतं धर्मम् । सेवते जीवितार्थी विषमिव पापं सुखाभिरतः ॥२०७॥ दुःखं पापस्य फलं नाशको पापस्य दुखितो नित्यम् ।
सुखितोऽपि करोतु धर्म धर्मस्य फलं विजानन् ॥२०८।। सामियों के वैराग्य का कारण थी। उसने सोचा-हाय ! ऐसी स्थिति होने पर अब क्या उपाय है ? अजगर क्रौंच पक्षी को, क्रौंच पक्षी सर्प को, सर्प मेंढक को निगल रहे हैं । कण्ठगत प्राण रहने पर भी ये एक-दूसरे से विराम नहीं ले रहे हैं, अपितु अधिकाधिक रूप से प्रवृत्त हो रहे हैं । एक-दूसरे के विनाश को न छोड़ते हुए ये इस समय जी रहे हैं । अतः अप्रतिकार मार्ग वाली इस वस्तु को देखने से क्या लाभ ? मतवाले हाथी को वहाँ से
का। राजा ठहरने के स्थान पर गया और कटक के साथ ठहर गया। उसने करने योग्य उचित कार्यों को किया। जब रात आधी बीत गयी तब राजा सोकर उठा। अजगरादि की घटना का स्मरण कर विचार करने लगा
पापरूप विषय भोगते समय तो बड़े मधुर लगते हैं, किन्तु इनका फल नीरस होता है, अत: ये विष के समान हैं। मखों द्वारा ये सम्मानित होते हैं, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति इन्हें छोड़ देते हैं । इनके कारण यह लोक शाश्वत धर्म को छोड़ देता है । जीवनार्थी सुख में रत रहते हुए इनका विष के समान सेवन करता है । पाप का फल दुःख है, धर्म पाप का नाशक है। धर्म के फल को जानता हुआ प्राणी, चाहे वह दुःखी हो या सुखी, धर्म करे ॥२०६-२०८॥
१. का-च, २. नासो-च।
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