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________________ वोमो भवो] १४७ मंडुक्को इव लोओ तुच्छो इयरेण पन्नएणं व । एत्थ गसिज्जइ सो वि हु कुररसमाणेण अन्नेण ॥२०॥ सो वि हु न एत्थ सवसो जम्हा अयगरकयंतवसगो त्ति । एवंविहे वि लोए विसयपसंगो महामोहो ॥२१०॥ ता अलं मे अणेयदुक्खतरुबीयभूएण अहोपुरिसिगाविझारपाएणं रज्जेणं ति। रज्जं हि नाम पायालं पिव दुप्पूरं, जिण्णभवणं पिव सुलहविवरं, खलसंगयं पिव विरसावसाणं, वेसित्थियाहिययं पिव अत्थवल्लहं, वम्मीयं पिव बहुभुयंग, जीवलोयं पिव अणिट्ठियकज्ज, सप्पकरंडयं पिव जत्तपरिवालणिज्जं अणभिन्नं विसंभसुहाणं, वेसाजोव्वणं पिव बहुजगाभिलसणीयं, अकारणं च सुद्धपरलोयमग्गस्स ति। ता एवं परिच्चइय पव्वज्जामो धीरपुरिससेवियं उभयलोयसुहावहं समणत्तणं ति। अह कहं पुण पत्थुयवत्थुविसए लाघवं न भविस्सइ ? अहवा थेवमेयं एगजम्मपडिबद्धं ति। एवं चितयंतस्स अइक्कंता रयणी, कयं गोसकिच्चं, पविट्ठ मंतिमंडलं । मण्डूक इव लोकस्तुच्छ इतरेण पन्नगेनैव । अत्र ग्रस्यते सोऽपि खलु कुररसमानेनान्येन ॥२०॥ सोऽपि खलु नात्र स्ववशो यस्मादजगरकृतान्तवशग इति । एवंविधेऽपि लोके विषयप्रसङ्गो महामोहः ॥२१०॥ ततोऽलं मेऽनेकदुःखतरुबीजभतेन आहोपुरुषिकाविकारप्रायेण राज्येनेति ।राज्यं नाम हि पातालमिव दुष्पूरम्, जीर्णभवनमिव सुलभविवरम्, खलसंगतमिव विरसावसानम्, वेश्यास्त्रीहृदयमिव अर्थवल्लभम्, वल्मिकमिव बहुभुजङ्गम्, जीवलोकमिवानिष्ठितकार्यम्; सर्पकरण्डकमिव यत्नपरिपालनीयम्, अनभिज्ञ विश्रम्भसुखानाम्, वेश्यायौवनमिव बहुजनाभिलषणीयम्, अकारणं च शुद्धपरलोकमार्गस्येति तत एतत्परित्यज्य प्रपद्यामहे (प्रब जामः) धीरपुरुषसे वितमुभयलोकसुखावहं श्रमणत्वमिति । अथ कथं पुनः प्रस्तुतवस्तुविषये लाघवं न भविष्यति ? अथवा स्तोकमेतदेकजन्मप्रतिबद्धमिति । एवं चिन्तयतोतिक्रान्ता रजनी, कृत प्रातःकृत्यम्, प्रविष्टं मन्त्रिमण्डलम् । मेंढक के समान तुच्छ लोक दूसरे सर्प के समान किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा निगला जाता है। वह भी क्रौंच पक्षी के समान अन्य से निगला जाता है। अन्य भी (कुरर भी) अपने वश में नहीं है; क्योंकि वह मत्यू रूपी अजगर के वश में है। इस प्रकार के संसार में भी विषयों के प्रति आसक्ति रखना महामोह है ॥२०९-२१०॥ अतः अनेक दुःखरूपी वृक्ष के बीजभूत और प्रायः अहंकाररूपी विकार से युक्त यह राज्य व्यर्थ है। राज्य पाताल के समान कठिनाई से पूरा करने योग्य है। पुराने मकान के समान है, इसमें छेद होना सुलभ है ; दुष्टों की संगति के समान है; जिसकी समाप्ति नीरस होती है; वेश्या स्त्री के हृदय के समान है, जिसको धन ही प्यारा होता है; जिसमें बहुत से साँप रहते हैं ऐसी बाँबी के समान है क्योंकि यह बहुत से लम्पट मित्रों से युक्त है । संसार के समान है, जिसमें कार्य अस्थिर हैं; साँप के पिटारे के समान है, जिसकी प्रयत्न से रक्षा करनी होती है। विश्वस्त सुखों से अनभिज्ञ है, वेश्या के योवन के समान अनेक लोगों की अभिलाषा रखने वाला है और शुद्ध परलोक मार्ग का यह बाधक है। अतः इसे छोड़कर धीरपुरुषों द्वारा सेवित और उभय लोक में सुख देने वाली जिनदीक्षा को धारण करता हूँ। तब प्रस्तुत वस्तु के विषय में कैसे लाघव नहीं होगा ? अथवा एक जन्म से जुड़ा हुआ लाघव थोड़ा है। इस प्रकार चिन्ता करते हुए रात्रि बीत गयी; प्रात:कालीन कृत्यों को किया, मन्त्रिमण्डल में प्रविष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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