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________________ १४८ [समराइच्चकहा एत्यंतरमि निवेइयं से विजयवइनामाए पडिहारीए-महाराय ! एसो खु दुम्मई देवं सयमेव पत्थियं वियाणिय चंडं च देवसासणमवगच्छिय सिरोहराबद्धपरसू देवसासणाइक्कमणजायपच्छायावो कइवयपुरिसपरिवारिओ इहेवागओ देवदंसणसुहाभिलासी पडिहारभूमीए' चिट्टइ। एयं सोऊण देवो पमाणं ति। तओ पुलोइओ राइणा मइसायरो। भणियं च तेण इंगियागारकुसलेण-पविसउ, को एत्थ दोसो ? सरणागयवच्छला चेव राइणो हवंति। तओ राइणा अणुन्नाओ पविट्ठो दुम्मई 'देव एसा सिरोहरा एसो य कुहाडों' त्ति भणिऊण पडिओ चलणेसु । तओ अभयं दाऊण बह माणिओ राइणा, कओ से अहिययरसक्कारो। नियत्तिऊण य राया गओ जयउरं । निवेइओ राइणा निययाभिप्पाओ मंतिमंडलस्स। तेण वि य 'किच्चमेवेयमिह वंससंभवाणं रायाणं सेसयाणं पि, कि पुण तुम्हाणं जिणवयणभावियमईणं ति, उभयलोयसाहारणं च सफलं जीवियं देवस्स, वणदवसन्निहा य कामभोगा इंधणाओ चेव जलंति किपागफलसमाणा य विवागे, अयंडमणोरहभंगकारी य पहवइ विणिज्जियसुरासुरो मच्चु ति कलिऊण बहु मन्निओ। तओ सद्दाविया संवच्छरिया, भणिया य अत्रान्तरे निवेदितं तस्य विजयवतीनामया प्रतिहार्या–महाराज ! एष खलु दुर्मतिर्देवं स्वयमेव प्रस्थितं विज्ञाय चण्डं च देवशासनमवगत्य शिरोधराबद्धपरशुर्देवशासनातिक्रमणजातपश्चात्तापा कतिपयपुरुषपरिवारित इहैवागतो देवदर्शनसुखाभिलाषो प्रतिहारभूम्यां तिष्ठति। एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । ततः प्रलोकितो राज्ञा मति सागरः । भणितं च तेनेङ्गिताकारकुशलेन । प्रविशतु, कोऽत्र दोषः ? शरणागतवत्सला एव राजानो भवन्ति । ततो राज्ञाऽनुज्ञातः प्रविष्टो दुर्मतिः 'देव ! एषा शिरोधरा एष च कुठारः' इति भणित्वा पतितश्चरणयोः । ततोऽभयं दत्त्वा बहुमानितो राज्ञा, कृतस्तस्याधिकतरसत्कारः। निवर्त्य च राजा गतो जयपुरम् । निवेदितो राज्ञा निजाभिप्रायो मन्त्रिमण्डलस्य। तेनापि च ‘कृत्यमेवैतद् इह वंशसम्भवानां राज्ञां शेषाणामपि, किं पुनर्युष्माकं जिनवचनभावितमतीनाम्, उभयलोकसाधारणं च सफलं जीवितं देवस्य, वनदवसंन्निभाश्व कामभोगा इन्धना एव ज्वल न्ति किपाकफलसमानाश्च विपाके, अकाण्डमनोरयभङ्गकारी च प्रभवति विनिर्जितसुरासुरो मृत्युरिति कलयित्वा बहु मतः । ततः शब्दायिताः सांवत्सरिकाः, भणिताश्च तेन-निरूपयत आनन्द इसी बीच राजा की विजयवती नामक प्रतीहारी ने कहा, "महाराज! यह दुर्मति स्वयं राजा के प्रस्थान को जानकर और महाराज के शासन को कठोर अवगत कर, गर्दन में कुठार बांधकर, महाराज के शासन का अतिक्रमण करने से पश्चात्ताप करता हुआ, कुछ लोगों से घिरा होकर, महाराज के दर्शन रूप सुख का अभिलाषी होकर यहीं आया है, और द्वारभूमि पर स्थित है। यह सुनकर महाराज प्रमाण है।" तब राजा ने मतिसागर की ओर देखा । अभिप्राय को जानने में कुशल उसने कहा, "प्रवेश करे, क्या हानि है ? राजा लोग शरण में आये हुए लोगों के प्रति प्रेम करने वाले होते हैं।" तब राजा की अनुमति से दुर्मति प्रविष्ट हुआ। "महाराज ! यह गर्दन है, यह कुठार है-" ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। तब अभय देकर राजा ने उसका अधिकाधिक सत्कार किया। राजा लौट कर जयपुर गया । राजा ने अपना अभिप्राय मन्त्रिमण्डल से कहा । मन्त्रिमण्डल ने भी इसका स्वागत किया। उसने कहा, "इस वंश में जन्म लेने वाले शेष राजाओं का यह कृत्य है। जिनेन्द्रवचनों में श्रद्धाबुद्धि रखनेवाले आपके विषय में तो कहना हो क्या ? महाराज का जीवन दोनों लोकों-इस लोक और परलोक -में साधारण और सफल है । बन के दावानल के सदृश कामभोग ईंधन के समान जलाते हैं, काम भोगों का फल किंपाकफल के समान होता है। सुर और असुरों को जीतने वाली मृत्यु असमय में ही मनोरथ को नष्ट करने में समर्थ है-यह देखकर आपने इस ओर विशेष ध्यान दिया है। अनन्तर ज्योतिषियों को बुलवाया और १. पडिहारभूमिए-च। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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