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भूमिका ]
हरिभद्र उपस्थित होते हैं। उनका यह दूसरा रूप सम्भवतः विद्यापरिपाक का फल है । अतएव वह उनके जीवनकाल की उत्तरावधि में ही सम्भव है । जैनधर्म के बाह्य आचार-विचार के समर्थक के रूप में उनकी प्राथमिक स्थिति है, जबकि तास्विक धर्म के समर्थक रूप में वे एक परिनिष्पन्न चिन्तक हैं। किसी भी अन्तर्मुख व्यक्ति के जीवन का ऐसा होना स्वाभाविक है । सम्भव है उन्होंने केवल योग के ग्रन्थ ही नहीं लिखे, कुछ योगसाधना भी की होगी । उसी का परिणाम है कि जीवन में धार्मिकता का स्थान उदारता ने ले लिया ।"
हरिभद्र का षड्दर्शनसमुच्चय षड्दर्शनों के स्वरूप को समझने का उपयोगी ग्रन्थ है । इसकी रचना उन्होंने केवल उन दर्शनों के मान्य देव और तत्त्व को यथार्थ रूप में निरूपित करने की प्रतिपादनात्मक दृष्टि से की है, किसी का खण्डन करने की दृष्टि से नहीं । हरिभद्र ने षड्दर्शन के अन्तर्गत चार्वाक् को भी स्थान दिया है। न्याय एवं वैशेषिक दर्शन को वे भिन्न नहीं मानते हैं ।
योग ग्रन्थों के प्रणयन से पूर्व हरिभद्र ने एतद्विषयक अन्य भारतीय ग्रन्थों का गम्भीर आलोडन किया था । वे सांख्य-योग, शैव-पाशुपत और बौद्ध आदि परम्पराओं के योग-विषयक प्रस्थानों से विशेष परिचित थे | गीता के संन्यास शब्द को सर्वप्रथम हरिभद्र ने जैन-परम्परा में अपनाया । उन्होंने धर्मसंन्यास योगसंन्यास और सर्व संन्यास के रूप में त्रिविध संन्यास का निरूपण किया। वे सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा तथा तथता आदि सभी नामों को एक निर्वाण तत्त्व के बोधक कहकर उस नाम से निर्वाण तत्त्व का निरूपण एवं अनुभव करने की शक्ति के बारे में विवाद करने का निषेध करते हैं ।
गीता में 'बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह:' पद आता है। हरिभद्र इस पद को लेकर बुद्धि की अपेक्षा ज्ञान की कक्षा और ज्ञान की अपेक्षा असम्मोह की कक्षा कैसी ऊँची है - यह रत्न की उपमा देकर समझाते हैं और अन्त में कहते हैं कि सदनुष्ठान में परिणत होने वाला आगम ज्ञान ही असम्मोह है ।
योगबिन्दु में हरिभद्र ने जैनदृष्टि से सर्वज्ञत्व का स्वरूप स्थापित किया है और कुमारिल, धर्मकीर्ति साक्षात् सर्वज्ञत्व विरोधी विचारों का प्रतिवाद किया है ।
जैसों के
दर्शन और योग के समान सर्जनात्मक साहित्य के क्षेत्र में भी हरिभद्र की अबाध गति थी। उनकी व्यंग्यप्रधान रचना धूर्ताख्यान है । इसमें पुराणों में वर्णित असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं द्वारा किया गया है। भारतीय कथासाहित्य में शैली की दृष्टि से इस कथाग्रन्थ का मूर्धन्य स्थान है। लाक्षणिक शैली में इस प्रकार की अन्य रचना दिखलाई नहीं पड़ती । दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि व्यंग्योपहास की इतनी पुष्ट रचना अन्य किसी भाषा में सम्भवतः उपलब्ध नहीं है । धूर्तों का व्यंग्यप्रहार ध्वंसात्मक नहीं, निर्माणात्मक हैं । 3
इस प्रकार विविध क्षेत्रों में हरिभद्र ने जो वैदुष्य का परिचय दिया है, वह स्पृहणीय है ।
१. षड्दर्शनसमुच्चय, प्रस्तावना - पृ. १६ । २. इन्द्रियार्थाश्रया बुद्धिज्ञनिं स्वागमपूर्वकम् । सदनुष्ठानव चर्चेत दसम्मोहोऽभिधीयते ॥ रत्नोपलम्भतज्ज्ञानतत्प्राप्त्यादि यथाक्रमम् । दोदाहरणं साधु ज्ञेयं बुद्ध्यादिसिद्धये ॥
- योगदृष्टिसमुच्चय ११९-१२०
३. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पू. ४७४.
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