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[ समराइचकहा समराइच्चकहा की संक्षिप्त कथावस्तु
समराइच्चकहा में उज्जैन के राजा समरादित्य और प्रतिनायक अग्निशां के जन्मों (भवों) का वर्णन है। यद्यपि बीच में दोनों के अनेक जन्म हुए, किन्तु कथाकार ने नौ जन्मों को ही प्रमुखता देकर प्रत्येक जन्म की कथा एक-एक भाग में समाप्त की है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में नो भव या परिच्छेद हैं। नवों भवों की कथाओं में जन्म की अपेक्षा अन्योन्य सम्बन्ध होते हुए भी प्रत्येक कथा अपने में पूर्ण स्वतन्त्र है। ना प्रतिनायक क्रमश: प्रथम भव में गुणसेन और अपि शर्मा, द्वितीय भव में सिंह और आनन्द के रूप में पिता-पुत्र, ततीय भव में शिखि और जालिनि के रूप में पुत्र तथा माता चौथे भव में धन तथा धनश्री के रूप में पतिपत्नी, पांचवें भव में जय-विजय के रूप से सहोदर भाई, छठे भव में धरण और लक्ष्मी के रूप में पति-पत्नी, सातवें भव में सेन और विसेन के रूप में चचेरे भाई, आठवें भव में गुणचन्द्र और वानमन्तर तथा नवें भव में समरादित्य तथा गिरिसेन चाण्डाल के रूप में उत्पन्न हुए। अनन्तर पहले (जीव) समरादित्य को तो मोक्ष की प्राप्ति हो गयी और दूसरे जीव) को असन्त संसार की प्राप्ति हुई।
प्रथम भव की कथा
जम्बद्वीप के अपरविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नाम का नगर था। वहां का राजा नाम और गुणों से पूर्णचन्द्र था । अन्तःपुर में प्रधान उसकी कुमुदिनी नामक रानी थी। उन दोनों के गुणसेन नामक पुत्र था जो बाल्यावस्था से ही बालसुलभ चेष्टाओं से व्यन्तर देव के समान क्रीड़ाप्रिय था। उसी नगर में यज्ञदत्त नाम का पुरोहित था । यज्ञदत्त के अग्निशर्मा नामक पुत्र था । अग्निशर्मा कुरूप था। अतः कुमार गुणसेन कुतूहलवश उसका अनेक प्रकार से उपहास किया करता था। कभी वह उसे जोर से ढोल बजाकर, कभी मृदंग, बाँसुरी तथा मजीरे की ध्वनि की जिसमें प्रधानता होती थी, ऐसे बड़े-बड़े बाजों के साथ नगर के लोगों के बीच तालि बजा-बजाकर हँसता हुआ नाचता था, कभी गधे पर चढ़ाता और कभी हर्षित होकर बहुत से बच्चों से घिरवाता था। इस प्रकार प्रतिदिन मानो यम के द्वारा सताये गये उस अग्निशर्मा के अन्दर वैराग्यभावना उत्पन्न हो गयी। वह नगर से निकल पड़ा और एक मास में ही उस देश की सीमा पर स्थित सुपरितोष नामक तपोवन में पहुंचा। वहाँ कुछ दिन रहकर उसने कुलपति आर्जब कौण्डिन्य से दीक्षा ले ली। दीक्षा के दिन जब कि समस्त तापस गुरु के चारों ओर कठे थे, उसने एक बहुत बड़ी प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन माह में एक बार भोजन करूँगा। व्रतान्त भोजन के दिन सबसे पहले जिस घर में जाऊँगा, वहाँ आहार मिले तो ठीक, नहीं तो लौट जाऊँगा, भोजन के लिए दूसरे घर नहीं जाऊँगा।
राजा पूर्णचन्द्र गुणसेन को राजपद पर भषिक्त कर। रानी कुमुदिनी के साथ तपोवनवासी हो गया । एक बार गुणसेन वसन्तपुर आया । वसन्तपुर के समीप सुपरितोष नामक तपोवन में उसने आर्जवकौण्डिन्य सहित समस्त ऋषियों के दर्शन किये और उन्हें भोजन हेतु निमन्त्रित किया। कुलपति ने राजा का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया, साथ ही यह भी कहा कि अग्नि गर्मा मासोपवास व्रत पालने के कारण अभी भोजन नहीं कर सकेगा । गुणसेन अग्निशर्मा के पा गया। वह अग्निशर्मा को भूल चुका था। उसने अग्निशर्मा को भोजन हेतु निमन्त्रित किया। अग्निशम ने पाँच दिन बाद पारणा के दिन राजा के घर भोजन करना स्वीकार कर लिया। पाँच दिन बाद जब वह गुणसेन के महल में गया तो उसे ज्ञात हुआ कि राजा भयंकर शिरोवेदना से पीड़ित है, फलतः वह बिना आहार लिये ही वहाँ से लौट आया।
राजा की जब शिरोवेदना शान्त हुई और अग्निशर्मा के लौटने का जब वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो उसे
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