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[समराइन्धकहा चंडालो। भद्द, जइ ते निब्बंधो, ता एवं संपाडेहि । जीवावेमि ताव एयं भुयंगदळें, पच्छा मारेज्जासि ति। हरिसिओ चंडालो। चितियं च तेण----जो मे सामिसूयं सयलरिदपच्चक्खायं पि जीवावइस्सइ, तं कहं दक्खिण्णमहोयही गुणेगंतपक्खवाई महराओ वावाइस्सइ ? ता जीविओ खु एसो, कहं वा एस एवं विवज्जइस्सइ त्ति चितिऊण तेण सहिओ पाडहिओ। साहिओ य वुत्तो रायपुरिसस्स । तेण भणियं-भद्द, किमेत्थ सच्चयं, ज एस जंपइ ? धणेण भणियं-अत्थि ताव मम पन्नगविसावहारी मंतो । कज्जसिद्धीए उ देवो पमाणं । अविसओ खु एसो पुरिसयारस्स। तहावि पेच्छामि ताव त्ति । रायपरिसेण चितियं-अहो से अवत्थाणगरुओ अलावो अणुद्धओ य । ता अवस्सं जीवावेइ एस रायपुत्तं ति । मोयाविऊण नीओ नरवइसमोवं, दंसिओ राइणो, साहिओ वुत्तंतो । तओ तं दळूण चितियमणेण - महाणुभावागिई खु एसो । ता कहं परदवावहारं करिस्सइ ? अहवा पुणो विगप्पिस्सामि, न एस वियारणाए सम् ओ; विसमा गती विसस्स, मा अच्चाहियं मे भविस्सइ पत्तयस्स त्ति चितिऊण बाहजलभरियनयणेणं ईसिपरिक्खलंतवणेण भणिओ खु तेणं राइणा। भद्द, जीवावेहि मे सुयं ति । तओ धणेण भणियं-देव, मुंच विसायं, पेच्छ भयवओ मंतस्स सामत्थं भद्र ! यदि ते निर्बन्धस्तत एतं सम्पादय। जीवयामि तावदेतं भुजङ्गदष्टं, पश्चाद् मारयेरिति । हर्षितश्चण्डालः । चिन्तितं च तेन । यो मे स्वामिसुतं सकलनरेन्द्र (विषवैद्य)प्रत्याख्यातमपि जीवयिष्यति तं कथं दाक्षिण्यमहोदधिर्गुणैकान्तपक्षपातो महाराजो व्यापादयिष्यति ? ततो जीवितः खल्वेषः । कथं वा एष एवं विपत्स्यते इति चिन्तयित्वा तेन शब्दितो पाटहिकः । कथितश्च वृत्तान्तो राजपुरुषाय । तेन भणितम्-भद्र ! किमत्र सत्यम्, यदेष जल्पति ? धनेन भणितम्-अस्ति तावन्मम पन्नगविषापहारी मन्त्रः। कार्यसिद्धौ तु दैवं प्रमाणम् । अविषयः खल्वेषः पुरुषकारस्य, तथापि पश्यामि तावदिति । राजपुरुषेण चिन्तितम्-अहो! तस्यावस्थानगुरुक आलापोऽनुद्धतश्च । ततोऽवश्यं जीवयत्वेष राजपुत्रमिति मोचयित्वा नोतो नरपतिसमीपम् । दर्शितो राज्ञे, कथितो वृत्तान्तः । ततस्तं दृष्ट्वा चिन्तितमनेन । महानुभावाकृतिः खल्वेषः, ततः कथं परद्रव्यापहारं करिष्यति ? अथवा पुनर्विकल्पयिष्ये, न एष विचारणायाः समयः, विषमा गतिविषस्य, मा अत्याहितं भविष्यति मे पुत्रस्येति चिन्तयित्वा वाष्पजलभृतनयनेन ईषत्परिस्खलद्वचनेन भणितः खलु तेन राज्ञा । भद्र ! जीवय मे सुतमिति । ततो धनेन भणितम्-देव ! मुञ्च विषादम्, पश्य भगवतो हर्षपूर्वक चाण्डाल से कहा – “भद्र ! यदि आपका आग्रह है तो मैं इस कार्य को पूर्ण करूँ । इस सांप के द्वारा काटे हुए (राजपुत्र) को जिलाता हूँ, बाद में मुझे मार देना।" चाण्डाल हर्षित हुआ। उसने सोचा-जो समस्त विषवैद्यों के द्वारा मना कर दिये गये मेरे स्वामिपुत्र को जीवित करेगा उसे कृपालुता रूपी सागर से युक्त गुणों के कारण एकान्त पक्षपाती राजा कैसे मारेंगे? अतः यह जोवित हो गया। यह इस प्रकार कैसे विपत्ति को प्राप्त होगा, ऐसा विचारकर उसने डोंडी बजाने बाले को बुलाया और राजपुरुष से वृत्तान्त कहा । उसने कहा-"क्या यह जो कहता है, यह सत्य है ?"धन ने कहा--''मेरे पास सर्प का विष दूर करने वाला मन्त्र है, कार्यसिद्धि तो भाग्य के अधीन है। यह पुरुषार्थ का विषय नहीं है, फिर भी देखता हूँ।" राजपुरुष ने सोचा-ओह ! इसका कथन वजनदार और अनुद्धत है अतः यह अवश्य ही राजपुत्र को जीवित कर देगा-ऐसा सोचकर (उसे) छुड़ाकर राजा के पास लाया गया। राजा को दिखाया और वृत्तान्त कहा । तब उसे देखकर राजा ने विचार किया-इसकी आकृति बड़ी प्रभावशाली है, अतः यह कैसे दूसरे के धन को चुरायेगा ? अथवा पुनर्विचार करूँगा, यह विचार करने का समय नहीं है, विष की गति विचित्र है, मेरे पुत्र का कोई अनिष्ट न हो, ऐसा सोचकर आँखों में आंसू भरकर कुछ लड़खड़ाती आवाज में उसने कहा- भामेरे पुत्र को जीवित करो।" तब धन ने कहा-"महाराज!
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