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________________ साचो भयो] २१९ ति भणिऊण सुमरिओ मंतो अचितसामथओ य तस्स वियंभंतवयणकमलो पसुत्तो व्व सुहनिदाखए उठ्ठिओ कुमारो। एत्थंतर म्मि समुद्धाइओ साहुवायकलयलो। परितुट्ठो राया, हरिसविसेसओ अणुचियं पि थेवयाए खित्तं धणस्स कडिसुत्तयं । वरिसियं च देवीहि आहरणवरिसं। धणेण भणियं-महाराय, किमणेणं ति । राइणा भणियं-भद्द, भण, कि ते अवरं संपाडीयउ ? धणेण भणियं-देव, अलमगेण । इमं पुण संपाडेउ देवो तस्स वहनिओगकारिणो अचंडालभावस्स चंडालाभिहाणस्स समीहियं मणोरहं ति । राइणा चितियं -- अहो से गरुथया। न ईइसो विसुद्धसत्तजुत्तो अकज्ज समायरइ । ता को उण एसो? पुच्छामि एयं । अहवा संपाडेमि ताव एयरस समीहियं, पुणो पुच्छिस्सं ति चितिऊण भणियं राइणा सद्दावेह चंडाल, पच्छह य, को से मणोरहो ? तओ गओ पडिहारो, पुच्छिओ य तेण । अरे खंगिलय, परितुट्ठो ते राया, अहवा रायपुत्तजीवियदायगो नरिंदचूडामणी; ता भण, किं ते करीयउ त्ति ? तओ खंगिलेण चितियं--नत्थि अग्धो सज्जणचरियस्स, न याऽविसओ महाणुमन्त्रस्य सामर्थ्य मिति भणित्वा स्मतो मन्त्रः। अचिन्त्यसामर्थ्यतश्च तस्य विज़म्भमाणवदनकमलः प्रसुप्त इव सुखनिद्राक्षये उत्थित कुमारः। अत्रान्तरे समुद्धावितः साधुवादकलकलः । परितुष्टो राजा, हर्षविशेषतोऽनुचितमपि कट्यां क्षिप्तं धनस्य कटिसूत्रम् । वृष्टं च देवोभिराभरणवर्षम् । धनेन भणितम्-महाराज! किमनेनेति । राज्ञा भणितम्-भद्र ! भण किं तेऽपरं सम्पाद्यताम् । धनेन भणितम्-देव ! अलमनेन । इमं पुनः सम्पादयतु देवस्तस्य वधनियोगकारिणोऽचण्डालभावस्य चण्डालाभिधानस्य समीहितं मनोरथमिति । राज्ञा चिन्तितम्-अहो! तस्य गुरुकता, न ईदृशो विशुद्धसत्त्वयुक्तोऽकार्य समाचरति । ततः कः पुनरेषः ? पृच्छाम्येतम् । अथवा सम्पादयामि तावदेतस्य समीहितम्, पुनः प्रक्ष्यामि- इति चिन्तयित्वा भणितं राज्ञा। शब्दयत चण्डालम्, पृच्छत च, कस्तस्य मनोरथः ? ततो गतः प्रतीहारः पृष्टश्च तेन । अरे खङ्गिलक ! परितुष्टस्तव राजा, अथवा राजपुत्रजीवितदायको नरेन्द्रचूडामणिः, ततो भण, किं ते क्रियतामिति ? ततः खङ्गिलकेन चिन्तितम्-नास्ति अर्घः सज्जनचरितस्य, न विषाद को छोड़ो, भगवान् मन्त्र की सामर्थ्य देखो-ऐसा कहकर मन्त्र का स्मरण किया। मन्त्र की अचिन्त्य सामर्थ्य से खिले हुए मुखकमल वाला वह कुमार उठ गया, जैसे सुखपूर्वक सोने के बाद कोई उठ जाता है। इसी बीच साधुवाद की ध्वनि होने लगी। राजा सन्तुष्ट हुआ। विशेष हर्षित होकर अनुचित होने पर भी धन की कमर में उसने कटिसूत्र डाल दिया। महारानियों ने आभूषणों की वर्षा की। धन ने कहा- “महाराज! इससे क्या ?" राजा ने कहा- "भद्र ! मैं तुम्हारा दूसरा क्या (कार्य) करूं ?" धन ने कहा-"महाराज ! इससे व्यर्थ है। उस वध करने वाले चाण्डाल का, जिसका कि भाव चाण्डाल कर्म नहीं है, महाराज इष्ट मनोरथ पूरा करें।" राजा ने सोचा--इसका बड़प्पन आश्चर्ययुक्त है, इस प्रकार विशुद्ध प्राणों वाला अकार्य का आचरण नहीं करता है । अतः यह कौन है ? इससे पूछता हूँ अथवा इसके इष्टकार्य का सम्पादन करता हूँ, बाद में पूछेगा, ऐसा विचारकर राजा ने कहा - "चाण्डाल को बुलाओ और पूछो उसका क्या मन अनन्तर द्वारपाल गया और उससे पूछा-'अरे खंगिलक ! तुम पर राजा प्रसन्न हैं अ जीवन देने वाला श्रेष्ठ विषवैद्य प्रसन्न है, अतः तुम्हारा क्या कार्य करें ?" तब खंगिलक ने सोचा-सज्जनों के चरित का कोई मूल्य नहीं है और उनके महान प्रभाव का कोई विषय न हो, ऐसा नहीं है-ऐसा विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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