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________________ २२६ [समराइच्चकहा भावयाए ति चितिऊण भणियं - भद्द, अवि मुक्को सो देवेणं नरिंदचूडामणी ? तेण भणियं-- अरेखंगिलय, को एत्थ संदेहो ? कयन्नुसेहरयभूओ देवो, ता भण समीहियं । तेण भणियं-जइएवं, ता करेउ देवो पसायं; अलं अम्हाणं इमीए वुहजणगरहणिज्जाए उभवलोयविरुद्धाए जीविगाए ति । पडिहारेण भणियं - अरे दव्वजायं पत्थेहि, कि इमेणं । खंगिलेण भणियं - अओ वि अवरं दव्वजायं ति ? तओ पडिसोऊण निवेइयं पडिहारेण राइणो । भणियं च राइणा - अहो से विवेगो अलोभया य। धणेण भणियं देव, जाइमेत्तचंडालो खु एसो महाणुभावो; ता करेउ एयस्स ववसियं देवो ति । राइणा भणियं - भद्द, कतं चैव एयं; इमं पुण से अवरं, देउ भद्दो सहत्थेण एयस्स दीणारलक्खं चंडाल कुडुंब सहस्सवासिणि विझवासिणि च पट्टणस्स अवरबाहिरियं ति । तओ धणेण भणियं 'जं देवो भणइ' त्ति । पडिवज्जिऊण संपाडियं रायसासणं ति । मुट्ठो खंगिलगो न तहा वित्तलाहेण जहा धणजीविएण | तओ धणमुवचरिऊण भणियं राइणा । भद्द, ववसायाओ चेव अवगओ ते सुकुलजम्मो । चाविषयो महानुभावताया इति चिन्तयित्वा भणितम् अपि मुक्तः स देवेन नरेन्द्र (विषवैद्य) चूडामणिः ? तेन भणितम् - अरे खङ्गिलक ! कोऽत्र सन्देहः ? कृतज्ञशेखरभूतो देवः ततो भण समीहितम् । तेन भणितम् - यद्येवं ततः करोतु देवः प्रसादम् । अलमस्माकमनया बुधजनगर्हणीयया उभयलोकविरुद्धया जीविकयेति । प्रतीहारेण भणितम् - अरे द्रव्यजातं प्रार्थयस्व, किमनेन ? खङ्गिलेन भणितम् - अतोऽपि अपरं द्रव्यजातमिति ? ततः प्रतिश्रुत्य निवेदितं प्रतीहारेण राज्ञे । भणितं च राज्ञा - - अहो ! तस्य विवेको अलोभता च धनेन भणितम् - देव ! जातिमात्रचण्डालः खलु एष महानुभावः, ततः करोतु एतस्य व्यवसितं देव इति । राज्ञा भणितम् - भद्र ! कृतमेवैतत् । इदं पुनस्तस्यापरम्, ददातु भद्रः स्वहस्तेन एतस्मै दीनारलक्षं चण्डाल कुटुम्बसहस्रवासिनीं विन्ध्यवासिनीं च पत्तनस्य अपरबाह्यां (भूमिम् - - ) इति । ततो धनेन भणितं 'यद् देव आज्ञापयति' इति प्रतिपद्य सम्पादितं राजशासनमिति । तुष्टः खङ्गिलको न तथा वित्तलाभेन यथा धनजीवितेन । ततो धनमुपचर्य भणितं राज्ञा । भद्र ! व्यवसायादेव अवगतं ते सुकुलजन्म, ततः किन्निवासिनं कर कहा--" महाराज ने उस श्रेष्ठ विषवैद्य को छोड़ दिया ?” उसने कहा - " अरे खंगिलक ! इसमें क्या सन्देह है ? महाराज कृतज्ञों में शिरोमणि (शेखर) हैं अतः (अपना) मनोरथ कहो ।" उसने कहा - "यदि ऐसा है तो महाराज कृपा करें । हम लोगों को विद्वानों के द्वारा निन्दित दोनों लोकों में विरुद्ध इस जीविका से कोई प्रयोजन नहीं है ।" द्वारपाल ने कहा - "अरे धन माँगो, इससे क्या ?" खंगिलक ने कहा - "इससे भी बड़ा कोई धन है ? " तब स्वीकार कर द्वारपाल ने राजा से निवेदन किया। राजा ने कहा - "ओह ! उसका विवेक और लोभरहितता आश्चर्यजनक है ।" धन ने कहा- "महाराज ! यह महानुभाव जाति मात्र से ही चाण्डाल है अतः इसके निश्चय को पूरा करें।" राजा ने कहा- “भद्र ! यह तो कर ही दिया है।" उसका दूसरा यह पुरस्कार है— उसे अपने हाथ से एक लाख दीनारें दो और हजारों चाण्डाल जिसमें रहते हैं, ऐसी विन्ध्यवासिनी पत्तन की भी भूमि दे दो ।" तब धन ने कहा - "जो महाराज आज्ञा दें," ऐसा कहकर राजा की आज्ञा पूरी की । खंगिलक धन के जीवन (लाभ) से जितना सन्तुष्ट हुआ, उतना धन-लाभ से नहीं । तब धन का सत्कार कर राजा ने कहा - " भट्ट ! कार्य से ही आपका जन्म अच्छे कुल में हुआ है, यह जान १. मुद्दिसिऊण क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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