SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भवो ] अज्जो । एत्यंतरंमि राइणो पढमपुत्तो सुमंगलो नाम, सो उज्जाणमुवगओ अहिणा दट्टो । उग्गयाए विसस्स थेववेलाए चेव पणट्ठसन्नो जाओ । आणीओ नरवइसमीवं । सद्दाविया गारुडिया, आगया य तुरतुरियं । दिट्ठो तेहि । 'अहो पणट्टा से सन्न' त्ति विसण्णा खु एए। पउत्ताइं मंतोसहाई, न जाओ से विसेसो । विसण्णो राया। चितियं च तेणं - अचिताओ पुरिससत्तीओ। कयाइ अन्नो वि कोइ सुसिद्धगारुडमंतो नरिंदो जीवावेइ त्ति । तो घोसावेमि ताव समंतओ पडहगेहिं । जहा - अहो अज्ज चैव एत्थ रायपुत्तो [सुमंगलो नामं सो उज्जाणमुवगओ। अहिणा दट्टो । जो तं जीवावेइ, सो जं चेव पत्थए तं चैव दिज्जइत्ति चितिऊण आदिट्ठा पाडहिगा पयट्टा नयारामदेउल सहा इमगेहि । एत्यंतर म्म आगओ एगो पाडहिगो तमुद्देसं । आयण्णिओ से सद्दो धणेण । जहा अहिणा बट्ठो रायपुत्तो; जो तं जीवावेद, सो जं चेव पत्थेइ तं चेव दिज्जइति । तओ सहरिसेण भणिओ माज्ञापयत्वार्यः । २५३ अत्रान्तरे राज्ञः प्रथमपुत्रः सुमङ्गलो नाम स उद्यानमुपगतोऽहिना दष्टः । उग्रतया विषस्य स्तोकवेलायामेव प्रनष्टसंज्ञो जातः । आनोतो नरपतिसमीपम् । शब्दायिता गारुडिकाः आगताश्च त्वरितत्वरितम् । वृष्टस्तैः । 'अहो ! प्रनष्टा अस्य संज्ञा' इति विषण्णाः खल्वेते । प्रयुक्तानि मन्त्रौषधानि, न जातोऽस्य विशेषः । विषण्णो राजा । चिन्तितं च तेन - अचिन्त्याः पुरुषशक्तयः, कदाचिद् अन्योऽपि कश्चित् सुसिद्धगारुडमन्त्रो नरेन्द्रो (विषवैद्यः) जीवयतीति । ततो घोषयामि तावत्समन्तात् पटकैः । यथा - 'अहो ! अद्य वात्र राजपुत्रः [सुमङ्गलो नाम स उद्यानमुपगतो ] अहिना दष्टः, यस्तं जीवति स देव प्रार्थयते तदेव दीयते' इति चिन्तयित्वा आदिष्टाः पाटहिकाः, प्रवृत्ता नगरारामदेवकुलसभादिमार्गेषु । अत्रान्तरे आगत एकः पाटहिकस्तमुद्देशम् । आकणितस्तस्य शब्दो धनेन । यथा-अहिना दष्टो राजपुत्रः, यस्तं जीवयति स यदेव प्रार्थयते तदेव दीयते इति । ततः सहर्षेण भणितश्चण्डालः । किये आप पर प्रहार करने में समर्थ नहीं हूँ अतः तुम्हारा क्या प्रिय करू ? आर्य आज्ञा दें । " T इसी बीच राजा के सुमंगल नामक पुत्र को, जो कि उद्यान गया था, साँप ने डस लिया । विष की उग्रता के कारण थोड़े से ही समय में बेहोश हो गया । राजा के पास लाया गया। सांप के मन्त्र को जानने वाले बुलाये गये । वे (शीघ्रातिशीघ्र ) आये । उन्होंने देखा - ओह ! यह बेहोश हो गया है, यह कहकर खिन्न हो गये । मन्त्र और औषधियों का प्रयोग किया, किन्तु विशेष लाभ नहीं हुआ । राजा दुःखी हुआ । उसने सोचा- पुरुष की शक्ति अचिन्त्य होती हैं । कदाचित् कोई दूसरा, जिसे सर्प का मन्त्र अच्छी प्रकार सिद्ध है, ऐसा विषवैद्य जिला दे | अतः चारों ओर भेरी बजवाकर घोषणा कराता हूँ कि अरे ! आज ही राजपुत्र सुमंगल को जो कि उद्यान में गया हुआ था, सांप ने काट लिया। जो इसको जिलायेगा वह जो मांगेगा वही दिया जायेगा, ऐसा सोचकर भेरी बजाने वालों को बुलाया गया। वे नगर, उद्यान, मन्दिर तथा सभा आदि मार्गों में गये । इसी बीच एक डोंडी पीटने वाला उस स्थान पर आया । उसकी आवाज को धन ने सुना कि राजपुत्र को साँप ने उस लिया है, जो उसको जिलायेगा वह जो माँगेगा वही दिया जायेगा । तब ( धन ने ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy