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________________ २५२ [समराहच्चकहा रायसासणं किन्ने गं ति । तओ 'अदीणभावपिसुणियमहापुरिसभावो अओ चेव अणवराहो वि एसो मए वावाइयव्वो त्ति विसण्णेन वाहजलभरियलोयणेणं सगग्गयं भणिओ चंडालेण-अज्ज, जइ एनं, ता सुमरेहि इट्ठदेवयं, परिच्चय विसयरा', अंगीकरेहि धम्म, तहा ठाहि सग्गाहिमहं ति । तओ धिरत्थ जीवलोयस्स, न संपा डओ परत्यो त्ति चितिऊण ठिओ सग्गाहिमहं। गहियं चंडालेण कयंतजोहाकरालभासुरं करवालं, निक्कढियं पडियाराओ, वाहियं ईसि नियभुयासिहरे। भणियं च तेणं- अहो जणा, इमिणा किल कहंचि रायधयं वंचिऊण अवहडा तेलोक्कसारा रयणावली। इमिणा अवराहेण एस वावाइज्जइ, ता जइ अन्नो वि कोइ रायविरुद्धमासेवइस्सइ तं पि राया सुतिक्खेण दंडेण एवं चेव सासइस्सइ त्ति भणिऊण वाहियं करवालं। कारुण्णसुन्नभावयाए य अदाऊण पहारं विमुक्कखग्गो निवडिओ धरणोए चंडालो। भणिओ धणेण-भद्द, मा मे इमिणा अइसंभमेण हिययं पीडेहि । अणुचिट्ठाहि रायसासणं, निओगकारी तुमं ति। चंडालेण भणियंअज्ज, न सक्कुणोमि असंपाडिओवयारंतरस्स पहरिउं । ता कि ते पिययरं संपाडेमि त्ति, आणवेउ भद्र ! सम्पादय राजशासनम्, किमन्येने ति। ततोऽदोनभावपिशुनितमहापुरुषभावोऽत एवानपराधोऽपि एष मया व्यापादयितव्यः' इति विषण्णेन वाष्प जलभृतलोचनेन सगद्गदं भणितश्चण्डालेन । आर्य ! यद्येवं ततः स्मरेष्टदेवताम् परित्यज्य विषयरागम् अङ्गीकुरु धर्मम् तथा तिष्ठ स्वर्गाभिमखमिति । ततो धिगस्तु जीवलोकम, न सम्पादितः परार्थः' इति चिन्तयित्वा स्थितः स्वर्गाभिमूखम् । गहीतश्चण्डालेन कृतान्तजिह्वाकरालभासुरः करवालः, निष्कर्षित: प्रतीकाशद्, वाहित ईषद् निजभुजाशिखरे । भणितं तेन-'अहो जना ! अनेन किल कथंचिद् राजदुहितरं वञ्चयित्वाऽपहृता त्रैलोक्यसारा रत्नावली । अनेनापराधेन एष व्यापाद्यते। ततो यदि कोऽपि राजविरुद्धमासेविष्यते तमपि राजा सुतीक्ष्णेन दण्डेन एवमेव शासिष्यति' इति भणित्वा वाहितः करवालः । कारुण्यशन्यभावतया च अदत्वा प्रहारं विमुक्तखड़गो निपतितो धरण्यां चण्डालः । भणितो धनेन-भद्र ! मा मेऽनेनातिसम्भ्रमेण हदयं पीडय, अनतिष्ठ राजशासनम, नियोगकारी त्वमिति । आर्य ! न शक्नोमि असम्पादितोपकारान्तरं (त्वां) प्रहर्तुं म्ततः किं ते प्रियतरं सम्पादयामीति, राजा की आज्ञा पूरी करो, दूसरी बात से क्या ?" तदनन्तर दीनता के भाव से रहित होने के कारण जो महापुरुष लग रहा है, ऐसा यह बिना अपराध के ही मेरे द्वारा मारा जायगा, इस प्रकार दुःखी होकर आँखों में आंसू भरकर गद्गद होकर चाण्डाल ने कहा-"आर्य ! यदि ऐसा है तो इष्टदेवता का स्मरण करो, विषयों के प्रति राग डो, धर्म को ग्रहण करो और स्वर्ग के प्रति अभिमुख होओ।" तब 'संसार को धिक्कार मैंने परोपकार नहीं किया है' --ऐसा सोचकर स्वर्ग की ओर अभिमुख हो गया । चाण्डाल ने यम की जीभ के समान भयंकर चमकीली तलवार ली, प्रतिकार के लिए खींची, थोड़ा हथेलियों में लेकर उसने कहा- "हे मनुप्यो!इसने किसी प्रकार राजपुत्री को धोखा देकर तीनों लोकों की सारवाली रत्नावली हर ली। इस अपराध के कारण यह मारा जाता है । यदि कोई राजा के विरुद्ध कार्य करेगा तो उसे भी राजा कठोर दण्ड देकर इस प्रकार शासित करेगा" ऐसा कहकर तलवार चलायी। करुणाशून्य भाववाला न होने के कारण प्रहार न कर चाण्डाल ने तलवार छोड़ दी और पृथ्वी पर गिर पड़ा। धन ने कहा-'"भद्र! इस प्रकार की घबड़ाहट से हृदय को पीड़ित मत करो, राजा की आज्ञा का पालन करो; क्योंकि तुम राजा की आज्ञा मानने वाले हो।" चाण्डाल ने कहा-"आर्य ! बिना आपका उपकार १. विसायं-ख,२ , डण्डेश-के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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