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[समराइचकहा अविवेयबहुला विसयविसलालसा ईइसी चेव महिलिया होइ । अह कहं पुण महाराएण तीए बयणओ एयमेवं चेव पडिवन्नं ति । अहवा ईदिसी मे अवस्था, जेण संभवइ एयं पि । अविमिस्सगारीणि किल जोव्वणाणि हवंति । इट्ठा य सामहारायस्स । ता किमेत्थ जुत्तं ति। कि साहेमि जहटियं महारायस्स । अहवा वावाइज्जइ सा तवस्सिणी अवस्सं महाराएण। न कयं च से' समीहियं । ता कहमन्नं पि अणत्थं से संपाडेमि । असाहिज्जमाणे य मइलणा मे कुलहरस्स । तहावि वरं मइलणा, न उण परपीड ति। चितयंतो भणिओ विणयंधरेण । ता आइसउ कुमारो, कि मए एत्थ कायव्यं ति । मए भणियंभद्द, आएसयारी तुमं, ता संपाडेहि रायसासणं; किं वा मए दुरायारेण कुलफंसणेण जीवमाणेणं ति । अद्धभणिए छिक्किय सिरिहराभिहाणेण रायमग्गचारिणा नरेणं ति। नियकहापडिबद्धं च रायमग्गगामिएहि महया सद्देणं जंपियं बंभणेहिं 'भो कि बहुणा, न एस दोसयारी, एत्थ अम्हे कोसविसएहि पच्चाएमो'। एयमायण्णिऊण भणियं विणयंधरेण-कुमार, न तुमं दुरायारो, जओ जंपियं सिद्धाएसेण 'निदोसवत्थुविसओ विइण्णो ते रन्ना विरुद्धाएसो' ति। अवितहाएसो य सो भयवं, न सहिओ य विषयबिषलालसा ईदृश्येव महिलिका भवति । अथ कथं पुनर्महाराजेन तस्या वचनत एतदेवमेव प्रतिपन्नमिति ? अथवा ईदृशी मेऽवस्था, येन सम्भवत्येतदपि । अविमृश्यकारीणि किल यौवनानि भवन्ति । इष्टा च सा महाराजस्य। ततः किमत्र युक्तमिति । किं कथयामि यथास्थितं महाराजाय । अथवा व्यापाद्यते सा तपस्विनी अवश्यं महाराजेन । न कृतं च तस्याः समीहितम् । ततः कथमन्यमप्यनयं तस्य सम्पादयामि । अकथ्यमाने च मलिनता मे कुलगृहस्य । तथापि वरं मलिनता, न पुनः परपीडेति चिन्तयन् भणितो विनयन्धरेण । तत आदिशतु कुमार:, किं मया कर्तव्यमिति ? मया भणितम्-भद्र! आदेशकारी त्वम्, ततः सम्पादय राजशासनम्, किं वा मया दुराचारेण कुलपासनेन जीवतेति अभर्धणिते क्षतं श्रीधराभिधानेन राजमार्गचारिणा नरेणेति । निजकथाप्रतिबद्धं च राजमार्गगामिकर्महता शब्देन जल्पितं ब्राह्मणैः-'भो!किं बहुना, न एष दोषकारी, अत्र वयं कोशविषयः प्रत्याययामः । एतदाकर्ण्य भणितं विनयन्धरेण-कुमार ! न त्वं दुराचारः, यतो जल्पितं सिद्धादेशेन 'निर्दोषवस्तुविषयो विस्तीर्णस्ते राज्ञा विरुद्धादेशः' इति । अवितथादेशश्च स भगवान्, न सोढश्च है, हिंसा के समान संसार में निन्दित होती है। अथवा इस प्रकार के विचार से क्या लाभ ? विषय रूपी विष की लालसावाली (और) अविवेक की जिसमें बहुलता रहती है, ऐसी होती है स्त्री। अथवा कैसे महाराज ने उसके कहने मात्र से ही यह निश्चय कर लिया ? अथवा मेरी ऐसी अवस्था है, जिससे यह भी सम्भव है । यौवन के रूप बिना विचारे कार्य करने वाले होते हैं । और फिर वह (रानी) महाराज के लिए इष्ट है । अतः यहां पर क्या उचित है ? महाराज को क्या सही-सही बात बतलाऊँ ? अथवा उस बेचारी को महाराज मार डालेंगे और मैंने उसका (रानी का) इष्टकार्य भी नहीं किया तो फिर कैसे उसका और एक अनर्थ करूँ ? न कहे जाने पर मेरा कुलगृह (पितृगृह) मलिन हो जायगा । तथापि (कुल की) मलिनता श्रेष्ठ है, किन्तु दूसरे को पीड़ा देना श्रेष्ठ नहीं है-जब मैं ऐसा सोच रहा था तभी विनयन्धर ने कहा-'तो कुमार !आदेश दीजिए, मैं क्या करूं?' मैंने कहा'भद्र ! तुम तो आज्ञा मानने वाले हो, अतः राजाज्ञा का पालन करो । मुझ दुराचारी और कुलकलंकी के लिए जीने से क्या अर्थात् मेरा जीना व्यर्थ है, ऐसा आधा कहने पर श्रीधर नाम के मनुष्य ने, जो कि राजमार्ग पर चला जा रहा था, छींक दिया। मेरी कथा से जो परिचित थे, ऐसे मार्ग पर जाने वाले ब्राह्मणों ने जोर की आवाज में कहा-'बरे ! अधिक कहने से क्या? यह दोषी नहीं है। इस विषय में हम कोशविषय (सत्य का पता लगाने के लिए तपाये हुए लोहा आदि का प्रमुख दिव्यविशेष) से विश्वास करेंगे। यह सुनकर विनयन्धर ने कहा---'कुमार ! १. मे-ग, २. कोससवहेहि-ख 3. कोशः सत्यंकारार्थ तप्तलोहा दिस्पर्शप्रमुख दिव्यविशेषः ।
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