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________________ पंचमो भयो] राणा भणियं - अंब, कि पुण एत्थ कारणं ति नावगच्छामि । तोए भणियं - जाय, सुण । महामिसभूयं खु एयं रज्जं । एयबहुमाणेण य कुणिमगिद्धा इव मंडला अपरमत्यपेच्छिणो कावरिसा न गणेति सुकयं, म जाति उचियं, न पेच्छंति आयइं; विसयविसमोहियमणा सव्वहा तं तमायरंति, जेण साहीणे सग्गनिव्वाणगमणसाहणे अचितचितामणिरयणभूए मणुयत्ते निरयमेव गच्छंति ति । महापुरिसोय तुमं ति कज्जओऽवगच्छामि। एसो उण ते भाया कयाइ न एवंविहो हवेज्ज त्ति । अकल्लाणमित्तवं च राया हवइ । तस्सखल अणारिया विसयलो लुयत्तणेण कहं नाम अम्हे पिया भविस्सामो । तओ 'देस इण एस विसयसाहणं धणं' ति करेंति अकरणिज्जं, जंपंति अजंपियव्वं, पवत्तंति उभ्यलोगविरुद्धे, नियसंति धम्मववसायाओ । तओ सो सयं पि पावकम्मो पावकम्मेहि य पवत्तिओ, नत्थि तं जं न सेवइ । अओ जमासंकियमि मस्स, तं इमाओ नियमेण ते संभावेमि । ता कहं सोयाणलो मे अवेहति । राइणा भणियं - अंब, अलमासंकाए । सत्थो खु कुमारो | अहवा किमणेण । पवज्जामि अंबाए अणुनाओ सजीव निव्वुइकारयं समणत्तणं ति । तीए भणियं - जाय, अलं ते समणत्तणेणं । पयं परि खलु ईन्धनेभ्य एवापगमः शोकानलस्य । राज्ञा भणितम् - अम्ब! किं पुनरत्र कारणमिति नावगच्छामि । तया भणितम् — जात, शृणु । महाऽऽमिषभूतं खल्वेतद् राज्यम् । एतद्बहुमानेन च कुणिमगृद्धा इव मण्डला (काका) अपरमार्थप्रेक्षिणः कापुरुषा न गणयन्ति सुकृतम्, न जानन्त्युचितम्, न प्रेक्षन्ते आयतिम् विषयमोहितमनसः सर्वथा तत्तदाचरन्ति येन स्वाधीने स्वर्गनिर्वाणगमनसाधने अचिन्त्यचिन्तामणिरत्नभूते मनुजत्वे निरयमेव गच्छन्तीति । महापुरुषश्च त्वमिति कार्यंतोऽवगच्छामि । एष पुनस्ते भ्राता कदाचिन्न एवंविधो भवेदिति । अकल्याणमित्रवश्च राजा भवति । तस्य खल्वनार्या विषयलोलुपत्वेन 'कथं नाम वयं प्रिया भविष्यामः, ततो दास्यति नः (एष) विषयसाधनं धनम्' इति कुर्वन्त्यकरणीयम्, जल्पन्त्यजल्पितव्यम्, प्रवर्तन्ते उभय लोकविरुद्धे, निवर्तन्ते धर्मव्यवसायात् । ततः स स्वयमपि पापकर्मा पापकर्मभिश्च प्रवर्तितो नास्ति तद् यन्न सेवते । अतो यदाशङ्कितमस्य तदस्माद् नियमेन ते सम्भावयामि ततः कथं शोकानलो मेऽपतीति । राज्ञा भणितम् - अम्ब ! अलमाशङ्कया । स्वस्थः खलु कुमारः । अथवा किमनेन । प्रपद्येऽम्बयाऽनुज्ञातः ४४६ 'पुत्र ! कैसे दूर हो ? शोकरूपी अग्नि ईंधन से दूर नहीं होती है ।' राजा ने कहा, 'यहाँ पर क्या कारण है, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ !' माता ने कहा, 'पुत्र ! सुनो यह राज्य बड़े मांस के समान है। इसके प्रति आदरभाव रखने के कारण मुर्दा खाने वाले गिद्ध और कौओं के समान, परमार्थ को न देखने वाले कायरपुरुष अच्छे कार्य को नहीं गिनते हैं, उचित को नहीं जानते हैं, भावी फल को नहीं देखते है। विषयरूपी विष से मोहित मन वाले सर्वथा उस प्रकार का आचरण करते हैं जिससे स्वाधीन, स्वर्ग और निर्वाण के गमन का साधन, अचिन्त्य चिन्तामणि के समान मनुष्यभव पाकर भी नरक में हो जाते हैं । 'तुम महापुरुष हो' ऐसा मैं कार्य से जानती है। तुम्हारा यह भाई कदाचित् इस प्रकार का न हो । राजा अकल्याण-मित्र होता है । विषयलोलुपी ने अनार्य 'हम कैसे प्रिय होंगे, (जिससे हमें ) यह विषयों का साधनभूत धन देगा' ऐसा सोचकर अकरणीय ( कार्य ) करते हैं, न बोलने योग्य (बातों) को बोलते हैं, इहलोक और परलोक के विरुद्ध प्रवृत्ति करते हैं । धर्मकार्य से दूर रहते हैं । तब वह पापकर्मा स्वयं भी पापकर्मों के द्वारा प्रवर्तित होकर ऐसी कोई वस्तु या विषय नहीं, जिसका वह सेवन नहीं करता है। इसके विषय में जो आशाएँ हैं उन सबकी इसमें नियम से सम्भावना करती हूँ । अतः मेरी शोकरूपी अग्नि कैसे दूर हो सकती है ?' राजा ने कहा- 'माता! आशंका मत करो। माता की अनुमति से समस्त जीवों को सुख देने वाला श्रमणत्व प्राप्त Jain Education International कुमार स्वस्थ है । अथवा इससे क्या करता हूँ।' उसने ( माता ने कहा, 'पुत्र, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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