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________________ ४४० ( समसपहा णीयं से जणगीए आसगं । उवविठा य एसा । भणियं च ण----भो भो महतया, आणेह इह कुमारं। गया कुमाराणयगनिमित्तं रायपुरिसा । चितियं च राइणा । अहो णु खलु ईइस इमं रज्ज, ज स्स कए महं अणाचिक्खियकारणंतरमवलंबिऊण एवं पि वसियं महंतएहि ति । ता कि एइणा बंधुजणस्स वि अणिव्वुइकरेण विहलकिलेसायासमेत्तेण परमपमाएक्कहेउणा विवागदारुणेणं रज्जेणं । एत्थं पि बहुमाणो अविइयसंसारसरूवाणं जीवाणं । अओ देमि इमं कुमारस्स, अवणेमि सुयसिणेहसंवढियसोयाणलवियारमंबाए । एत्थंतरम्मि पुव्वकयकम्मदोसेणं राइणो उवरि वहपरिणामपरिणओ आणिओ कुमारो। दिट्ठो राइणा, सबहुमाणं च ठविओ सीहासणे। आणाविया सुगंधोदयभरिया कणयकलसा । गहिओ राणा सयमेव एक्को, गहिया य अन्ने पहाणसामंतेहि। अहिसित्तो कमारो। भणियं च णण-भो भो सामंता भो भो महंतया, एस भे राय त्ति । एढा नवज्जा राइणा सेससामंतएहि य । तओ चलणेसु निवडिऊण पुच्छिया अंबा-अंब, अवि अवगओते सोयाणलो। तओ महापुरिसचरियविम्हयक्खित्तहिययाए भणियमंबा ए-जाय, कहमेवं अवेइ; न खलु इंधणेहितो चेव अवगमो सोयाणलस्स प्रविष्टो राजा । उपनीतमथ जनन्या आसनम् । उपविष्टा चैषा। भणितं च तेन--भो भो महान्तः, आनयतेह कुमारम् । ताः कुमारानयनमिमित्तं राजपुरुषाः । चिन्तितं च राज्ञा-अहो नु खल्वोदशमिदं राज्यम्, यस्य कृते महद् अनाख्यातकारणान्तरमवलम्ब्य एतदपि व्यवसितं महभिरिति । ततः किमेतेन बन्धुजनस्याप्यनिवतिकरेण विफलक्लेशायासमात्रेण परमप्रमादैकहेतुना विपाकदारुणेन राज्येन । अत्रापि बहुमानोऽविदितसंसारस्वरूपाणां जीवानाम् । अतो ददामीदं कुमाराय, अपनयामि सुतस्नेहसंवर्धितशोकानल विकारमम्बायाः । अत्रान्तरे पूर्वकृतकर्मदोषेण राज्ञ उपरिवधपरिणामपरिणत आनीतःकुमारः। दृष्टो राज्ञा, सबहुमानं च स्थापितः सिंहासने। आनायिता सुगन्धोदकभताः कनककलशाः । गृहोतो राज्ञा स्वयमेव एकः, गहोताश्चान्ये प्रधानसामन्तः । अभि. षिक्तः कुमारः । भणितं च तेन-भो भोः सामन्तः, भो भो महान्ता:, एष युष्माकं राजेति। क्षिप्ता (णवज्जा दे ) नमस्या राज्ञा शेषसामन्तैश्च । ततश्चरणयोर्निपत्य पृष्टाऽम्बा । अम्ब-अप्यपगतस्ते कानलः। ततो महापूरुषचरितविस्मयाक्षिप्तहृदयया भणितमम्बया-जात ! कथमेवमति, न राजा प्रविष्ट हआ। माता मासन लायी और बैठ गयी। राजा ने कहा -... 'हे हे प्रधानपुरुषो ! कुमार को यहां लाओ।' कुमार को लाने के लिए राजपुरुष गये। राजा ने सोचा-'ओह ! यह राज्य ऐसा है कि जिसके लिए बडे अकथनीय कारण का अवलम्बन लेकर प्रधानपुरुषों ने यह भी किया। अतः बन्धुजनों को भी अशान्ति फलरहित क्लेश और परिश्रम वाले, परम प्रमाद का एकमात्र कारण तथा परिणाम में दारुण इस राज्य से ग्या लाभ? संसार के स्वरूप को न जानने वाले जीव इसका भी आदर करते हैं। अतः इसे कुमार को देता है. पत्रस्नेह से जिसकी शोकरूपी अग्नि बढ़ रही है, ऐसे माता के विकार को दूर करता हूँ। इसी बीच पूर्वकृत कर्म के दोष से गजा का वध करने के भाव से भरा हुआ कुमार आया। राजा ने देखा और सम्मानपूर्वक सिंहासन पर बैठाया। मगधि के जल से भरे हुए स्वर्णकलश मंगवाये। राजा ने स्वयं एक लिया, दूसरे प्रधान सामन्तों ने भी लिये । कुमार का अभिषेक किया। उसने कहा, हे हे सामन्तो ! हे हे प्रधानपुरुषो! यह तुम्हारा राजा है।' राजा ने नमस्कार किया शेष सामन्तों ने भी नमस्कार किया । अनन्तर चरणों में गिरकर जयकुमार ने माता से पूछा, 'माता जी ! आपकी शोकरूपी अग्नि दूर हो गई ?' तब महापुरुष के चरित से विस्मित एवं आकृष्ट हृदय वाली माता ने कहा, १..."अणोवेक्खि अ.."-क। २. सुयंधो "-ख, सुगंधतोय."-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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