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________________ ४५० [समराइचकहा वालेहि, एयस्स वि य करेहि जवरज्जाहिसेयं ति। राइणा भणियं। अंब, तायपसायलालियाओ धन्नाओ पयाओ। निउत्तो य एयासि परिवालणे कुमारो। कयरज्जाहिसेयस्स य विरुद्धो जुवरज्जाहिसेओ। जिणधम्मबोहेण विरत्तं च मे चित्तं संसारवासाओ। ता कि बहुणर। फरेउ पसायं अंबा, पवज्जामि अह समणत्तणं ति। भणिऊग निवडिओ चलणेसु ।तीए भणियं--जाय, जे ते रोयइ; किंतु अहं पि पडिवज्जामि त्ति । राइणा भणियं --अंब, पयइनिपुणे संसारे जुत्तमेयं । एत्थ खलु सव्वे सपज्जवसाणा निचया, पडणंता उस्सेहा, विओयपज्जवसागा संजोया, मरणतं जीवियं । अकयसुकयकम्माण य दारुणो विवाओ, दुल्लहं च मणुयत्ते जिणिदवयणं । ता किच्चमेयमंबाए वि। भणिओ य कुमारो-वच्छ, तायपसायलालियाओं पयाओ; तंतहा चेट्ठियव्वं, जहा पयाओ केणइ उवद्दवेण न सुमरेंति तायस्स । परिच्चइयत्वं कुमारचेट्ठियं, अवलंयव्वं रायरिसिवरियं, न मइलियन्वो पुव्वपुरिसविढत्तो जसो । किं बहुणा । जहा सुलद्ध मिह माणुसत्तणं हवइ, तहा कायव्वं ति। भणिया य रज्जचितया सामंता य । तुहि पि उचियं नियविवेगरस सरिसं तायपसायाणं अणुरूवं महाकुलस्स सकलजीवनिर्वतिकारकं श्रमणत्वमिति । तया भणितम-जात ! अलते श्रमणत्वेन । प्रजा परिपालय एतस्यापि च कुरु यौवराज्याभिषेकमिति। राज्ञा भणितम् -अम्ब ! तातप्रसादलालिता धन्याः प्रजाः । नियुक्तश्चैतासां परिपालने कुमारः। कृतराज्याभिषेकस्य च विरुद्धो यौवराज्याभिषेकः । जिनधर्मबोधेन विरक्तं च मे चित्तं संसारवासात्, ततः किं बहुना। करोतु प्रसादमम्बा, प्रपद्येऽहं श्रमणत्वमिति । भणित्वा निपतितश्चरणयोः तया भणितम-जात: ! यत्ते रोचते, किन्त्वहमपि प्रतिपद्ये इत। राज्ञा भणितम्-अम्ब ! प्रकृतिनिर्गणे संसारे यक्तमेतद् । अत्र खल सर्वे सपर्यवसाना निचया:, पतनान्ता उत्सेधाः, वियोगपर्यवसाना: संयोगा:, मरणान्तं जीवितम् । अकृतसुकृतकर्मणां च दारुणो विपाकः । दुर्लभं च मनुजत्वे जिनेन्द्रवचनम। ततः कृत्यमेतदम्बाया अपि । भणितश्च कमार:--वत्स ! तातप्रसादलालिता: प्रजाः, ततथा चेष्टितव्यं यथा प्रजाः केनचिदुपद्रवेण न स्मरन्ति तातस्य । परित्यक्तव्यं कुमारचेष्टितम्, अवलम्बितव्यं राजर्षिचरितम्, न मलिनयितव्यं पूर्वपुरुषाजितं यशः । किं बहुना, यथा सुलब्धमिह मानुषत्वं भवति तथावर्तव्यमिति । भणिताश्च राज्यचिन्तकाः सामन्ताश्च । युष्माभिरपि उचितं निजविवेकस्य सदशं तातप्रसादानामनरूपं महाकलस्य वद्धिकारक तुम श्रमणत्व ग्रहण मत करो अर्थात श्रमण मत बनो । प्रजा का पालन करो, इसका भी युवराज पद पर अभिषेक करो।' राजा ने कहा, 'माता ! पिताजी की कृपा से लालित प्रजाएं धन्य हैं और इनकी रक्षा करने के लिए कुमार को नियुक्त किया है । किये हुए राज्याभिषेक वाले का युटराज पद पर अभिषेक विरुद्ध है । जिनधर्मरूपी बोध से मेरा चित्त संसार में निवास करने से विरक्त है, अतः अधिक कहने क्या, म.ता जी, कृपा करो, मैं श्रमणत्व को प्राप्त होऊँगा'-- ऐसा कहकर चरणों में गिर गया। माता ने कहा-'पुत्र ! जो तुम्हें रुचिकर लगे। किन्तु मैं भी दीक्षा धारण करूंगी।' राजा ने कहा, 'माता ! स्वभाव से गुणहीन इस संसार में यह ठीक है । इस संसार में सारे पदार्थों का समूह विनाशशील है, शरीरों का अन्त में पतन होता है। संयोग का अन्त वियोग में होता है और जीवन भी मरणान्त है । अकृत और सुकृत कर्मों का विपाक दारुण है । मनुष्यभव प्राप्त होने पर भी जिनेन्द्र भगवान् के वचन दुर्लभ हैं । अत: माता के लिए भी दीक्षा धारण करना योग्य है' और कुमार से कहा, 'वत्स ! पिता जी के स्वभावानुसार मालित प्रजा के प्रति उसी प्रकार की चेष्टाएँ करना ताकि प्रजा को किसी उपद्रव से पिता का स्मरण न करना पड़े। कुमारचेष्टाओं को छोड़कर राजर्षि के चरित का अवलम्बन करना। पूर्वपुरुषों के द्वारा प्रजित यम को मलिन नहीं करना। अधिक कहने से क्या, जैसे यह मनुष्यभव सफल हो वैसा (प्रयत्न) करना।' राजचिन्तकों और सामन्तों से कहा, 'आप लोग भी अपने विवेक के योग्य, पिताजी के अच्छे स्वभाव के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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