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________________ पंचमो भवो ] જર્મ विद्विकारयं किती हियं पयाकुमाराणं उभयलोयसुहावहं चेट्ठियव्वं ति । तत्थ के हिंचि इहसावेक्खहिं भणियं - महाराय, कोइसा अम्हाणं महारायविरहियाणं दुवे वि लोया । तहावि जं देवो आणवे । अपsिहसासणो देवो । के अम्हे समीहियंत रायकरणस्स विसेसओ परलोयमग्गे । तओ अहिदिऊण एवं तेसि वयणं उट्टिओ राया । पयट्टी सणकुमारायरियसमीवं । एत्थंतर म्म समागओ गुरुपवत्तिकहणनिउत्तो सिद्धत्यो नाम बम्भणो । भणियं च तेण - देव, संसिद्धा ते मणोरहा । इहेवागओ भगवं सणकुमारायरिओ, आवासिओ तेंदुगुज्जाणे एयं च सोऊण हरिसिओ राया। सत्तट्ठ वा पयाणि गंतून तप्पएसट्ठिएणेव पडिलेहिय महियलं समुल्लसियरोमंचं ' धरणिनिहियजाणुकरयलेणं वंदिओ णेण, वंदिऊण पयट्टो भयवंतदंसणवडियाए । विन्नत्तो महंतयसासंतेहि । देव, संन्नं चेव समीहियं देवस्स । ता एत्थेव पसत्थतिहिकरणमुहुत्तजोए पव्वइस्सइ देवो । पडियं राइणा । गओ गुरुसमीवं । इयरेहि पि विजयं भणिऊण दावावियं महादाणं, काराविया सव्वाय पूया | अन्नया य पसत्थे तिहिकरणमुहुत्तजोए समारूढो रहवरं परियरिओ रायलोएण हितं प्रजाकुमारयोरुभयलोकसुखावहं चेष्टितव्यमिति । तत्र कैश्चिदिहलोक सापेक्षैर्भणितम् - महाराज ! कीदृशौ अस्माकं महाराजविरहितानां द्वावपि लोकौ तथाऽपि यद्देव आज्ञापयति । अप्रतिहतशासनो देवः । के वयं समीहितान्त रायकरणस्य विशेषतः परलोकमार्गे । तवोऽभिनन्द्य एतत्तेषां वचनमुत्थितो राजा । प्रवृत्तः सनत्कुमाराचार्य समीपम् । अत्रान्तरे समागतो गुरुप्रवृत्तिकथननियुक्तः सिद्धार्थो नाम ब्राह्मणः । भणितं च तेन - देव । संसिद्धास्ते मनोरथाः । इहैवागतो भगवान् सनत्कुमाराचार्यः । आवासितस्तिन्दुकोद्याने । एतच्च श्रुत्वा हृष्टो राजा । सप्ताष्ट वा पदानि गत्वा तत्प्रदेशस्थितनैव प्रतिलेख्य महीतलं समुल्लसितरोमाञ्चं धरणोनिहितजानुक्ररतलेन वन्दितस्तेन । वन्दित्वा प्रवृत्तो भगवद्दर्शनवृत्तितया । विज्ञप्तो महत्कसामन्तः - देव । सम्पन्नमेव समीहितं देवस्य । ततोऽत्रैव प्रशस्ततिथिकरण मुहूर्त योगे प्रव्रजिष्यति देवः । प्रतिश्रुतं राज्ञा । गतो गुरुस नोपम् । इतरैरपि विजयं भणित्वा दापितं महादानम्, कारिता सर्वायतनेषु पूजा । अन्यदा च प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तयोगे समारूढो रथवरं परिवृतो राज समान, महान् कुल के अनुरूप, कीर्ति की वृद्धि करने वाली, प्रजा और कुमार दोनों के लिए हितकारी, उभयलोक के लिए सुख प्रदान अरने वाली चेष्टाएँ करें ।' वहाँ पर कुछ इहलोक सापेक्ष लोगों ने कहा, 'महारज ! महाराज से रहित हमारे दोनों लोक कैसे हितकारी हो सकते हैं ? तथापि जो महाराज आज्ञा दें । महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । हम लोग इष्ट कार्य में विघ्न डालने वाले भला कौन होते हैं, विशेषत. परलोक मार्ग में ?' अनन्तर उनके इन वचनों का अभिनन्दन कर राजा उठ गया और सनत्कुमार आचार्य के समीप गया । इसी बीच गुरु का समाचार देने में नियुक्त सिद्धार्थ नामक ब्राह्मण आया। उसने कहा, 'महाराज ! आपके मनोरथ सिद्ध हुए । भगवान् सनत्कुमार आचार्य यहीं आये हुए हैं, तिन्दुक नामक उद्यान में ठहरे हुए हैं ।' यह सुनकर राजा प्रसन्न हुआ । सात आठ कदम चलकर उसी स्थान पर खड़े होकर, पृथ्वी का निरीक्षण कर, प्रकट रोमांचों वाला होकर, पृथ्वी पर घुटने टेककर, हथेलियों से उसने नमस्कार किया । नमस्कार कर भगवान् के दर्शन की वृत्तिरूप से प्रवृत्त हुआ । महासामन्तों ने निवेदन किया, 'महाराज ! आपकी इच्छा पूर्ण हो गयी । अतः यहीं उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त योग में महाराज प्रब्रजित होंगे राजा ने स्वीकार किया । ( वह) गुरु के समीप गया । दूसरों ने भी विजय से कहकर बहुत दान दिलाया, समस्त आयतनों में पूजा करायी । एक बार उत्तम तिथि, करण और मुहूर्त योग में रथ पर आरूढ़ होकर राजाओं द्वारा घिरे हुए, ईप्सित वस्तु के दान की घोषणा १. रोमचेणख । ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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