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________________ तइओ भवो ति। भयवया भणियं -एवमेयं, किंतु तं चेव संसारसरूवं पच्चक्खोवलब्भमाणासुंदरं पि अणेयभवभावणाओ मोहेइ पाणिणं, मूढो य सो न चितेइ तस्सरूवं, न गणेइ आयई, न मन्नए उवएसं, नाभिगंदइ गुरुं, न पेच्छइ कुलं, न सेवइ धम्मं, न बोहेइ अयसस्स, न रक्खइ वयणिज्जं। सव्वहा तं तमायरइ, जेण जेण सो इहलोए परलोए य किलेसभायणं होइ। ता निहणियव्वो खलु एस मोहो ति । सिहिकुमारेण भणियं -भयवं! तस्स वि य निहणणे एसेव उवाओ, न य अणाढत्तकज्जो पुरिसो फलं साहेइ, आढत्ते य संसओ, अहवा उवायपवत्तो असंसयं चेव साहेइ। उवाओ य एस, जं भयवओ समीवे समणत्तणपवज्जणं । नित्थरंति खलु कायरा वि पोयनिज्जामयगुणेण महण्णवं । न य अप्पपुण्णाणं कुसलबुद्धी हवइ। न य समुप्पन्नाए वि इमीए एवं विहसयलगुणसंपओववेयगुरुलाहो । ता करेहि मे भयवं ! अणुग्गहं ति । भयवया भणियं-वच्छ ! कओ चेव तुह मए अणुग्गहो । कि तु एसा समयट्ठिई अम्हाणं, जं संसिऊण थेवमागमत्थं, सिक्खाविऊणाऽऽवस्सयं अइक्कतेषु कइवयदिणेसु तओ किञ्चिद् दुष्करमिति । भगवता भणितम्-एवमेतत् , किं तु तदेव संसारस्वरूपं प्रत्यक्षोपलभ्यमानाऽसून्दरमपि अनेकभवभावनातो मोहयति प्राणिनः, मढश्च स न चिन्तयति तत्स्वरूपम, न गणयति आयतिम् , न मन्यते उपदेशम्, नाऽभिनन्दति गुरुम् , न प्रेक्षते कुलम् , न सेवते धर्मम । न विभेति अयशसः, न रक्षति वचनीयम् । सर्वथा तत तद् आचरति, येन येन स इहलोके परलोके च क्लेशभाजनं भवति । ततो निहन्तव्यः खलु एष मोह इति । शिखिकुमारेण भणितम्-भगवन ! तस्यापि च निहनने एष एव उपायः, न च अनारब्धकार्यः पुरुषः फलं साधयति, आरब्धे च संशयः, अथवा उपायप्रवृत्तोऽसंशयमेव साधयति । उपायश्च एषः, यद् भगवतः समीपे श्रमणत्वप्रपदनम । निरस्त रन्ति खलु कातरा अपि पोत-निर्यामकगुणेन महार्णवम । न च अल्पपुण्यानां कुशलबुद्धिभवति । न च समुत्पनया अपि अनया एवंविधसकलगुणसम्पदुपेतगुरुलाभः । ततः कुरु मम भगवन ! अनुग्रहम -इति । भगवता भणितम -वत्स! कृत एव तुभ्यं मयाऽनुग्रहः। किं तु एषा समयस्थितिरस्माकम , यत् शंसित्वा स्तोकमागमार्थम , शिक्षयित्वाऽवश्यकम , अतिक्रान्तेष कतिपय है, कुछ भी दुष्कर नहीं है ।" भगवान ने कहा- "ऐसा ही है, किन्तु संसार के असुन्दर स्वरूप को प्रत्यक्ष प्राप्त करते हुए भी अनेक भवों के संस्कारवश प्राणी मोहित होते हैं, मूढ़ प्राणी उस संसार के स्वरूप का विचार नहीं करता है, भादी फल को नहीं गिनता है, उपदेश को नहीं मानता है, गुरु का अभिनन्दन नहीं करता है। कुल को भी नहीं देखता है, धर्म का सेवन नहीं करता है, अपयश से नहीं डरता है, निन्दा से रक्षा नहीं करता है । सब प्रकार से वही-वही आचरण करता है, जिससे इसलोक और परलोक में निन्दा का पात्र बनता है । अतः इस मोह को मारना चाहिए।" शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! उसके मारने का यही उपाय है, पुरुष कार्य को प्रारम्भ किये बिना फल को प्राप्त नहीं करता है, प्रारम्भ करने पर (फल के विषय में) संशय रहता है अथवा उपायपूर्वक कार्य करने पर बिना संशय के ही इष्टसिद्धि कर लेता है। उपाय यही है कि भगवान् के पास श्रमणपने को प्राप्त हो जाता है । कातर व्यक्ति भी जहाज चलाने वाले के गुण से बहुत बड़े समुद्र को पार कर लेते हैं । अल्पपुण्य वालों की कुशल बुद्धि नहीं होती है। यदि अल्पपुण्य वालों के कुशल बुद्धि उत्पन्न हो भी जाय तो भी इस प्रकार की समस्त गुणों की सम्पत्ति से युक्त गुरु का लाभ भी प्राप्त नहीं हो पाता । अतः भगवन् ! मेरे ऊपर अनुग्रह करो।" भगवान् ने कहा-"तुम्हारे ऊपर मैंने अनुग्रह कर ही दिया है। किन्तु हमारे शास्त्र की यह मर्यादा है कि आगम के अर्थ का ज्ञान कराकर, आवश्यक की शिक्षा देकर, कुछ दिन बीत जाने के अनन्तर दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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