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________________ १६४ [समराइज्यकहा विचित्ता य दव्वादओ अभिग्गहा, अण्हाणं, भूमिसयणिज्ज, केसलोओ, निप्पडिकम्मस्सरीरया, सवकालमेव गुरूणं निद्देसकरणं, खुहा-पिवासाइपरीसहाहियासणं, दिवाइउवसग्गविजओ, लद्धावलद्धवित्तिया-कि बहुणा ? अच्चंतदुव्वहमहापुरिसबूढअट्ठारससीलंगसहस्सभरवहणमविस्सामं ति । ता तरियन्वो खलु अयं वाहाहि महासमुद्दो, भविखयव्यो निरासाय(ए) एव वालुगाकरलो, परिसक्कियव्वं निसियकरवालधाराए, पायव्वा सुहुयहुयवहजालावली, भरियन्वो सुहमपवणकोत्थलो, गंतव्वं गंगापवाहपडिसोएणं, तोलियन्वो तुलाए मंदरगिरी, जेयत्वमेगागिणा चाउरंगबलं, विधेयव्वा विवरीयभमंतद्धचक्कोवरिथिउल्लिया, गहियव्वा अगहियपुवा तिहुयणजयपडागा। एओवमं दुक्करं समणत्तणं ति। तओ एयमायण्णिऊण पहट्ठवयणकमलेण भणियं सिहिकुमारेण-भयवं ! एवमेयं, जहा तुम्भे आणवेह। किं तु विइयसंसारसरुवस्स पाणिणो तविओगुञ्जयस्स तस्सुच्छेयकारणं न किंचि दुक्कर मासादिकाश्च अनेकाः प्रतिमाः, विचित्राश्च द्रव्यादयोऽभिग्रहाः, अस्नानम्, भूमिशयनीयम्, केशलोचः, निष्प्रतिकर्मशरीरता, सर्वकालमेव गुरूणां निर्देशकरणम्, क्षुत्-पिपासादिपरिषहादिसहनम्, दिव्याद्यपसर्गविजयः, लब्धाऽपलब्धवृत्तिता- किं बहुना ? अत्यन्तदुर्वहमहापुरुषव्यूढाष्टादशशीलाङ्गसहस्रभरवहनमविश्रामम्- इति । ततस्तरीतव्यः खलु अयं बाहुभ्यां महासमुद्रः, भक्षयितव्यो निरास्वाद एव बालुकाकवलः, परिसर्तव्यं निशितकरवालधारायाम्, पातव्या सुहुतहुतवहज्वालावली, भर्तव्यः सूक्ष्मपवनकोत्थलः, गन्तव्यं गङ्गाप्रवाहप्रतिस्रोतसा, तोलयितव्यः तुलायां मन्दरगिरिः, जेतव्यमेकाकिना चातुरङ्गबलम , वेधितव्या विपरीतभ्रमदर्धवक्रोपरिस्त्रीपुत्तलिका, ग्रहीतव्या अगहीतपूर्वा त्रिभुवनजयपताका । एतदुपमं दुष्करं श्रमणत्वमिति । तत एतद् आकर्ण्य प्रहृष्टवदनकमलेन भणितं शिखिकुमारण-भगवन् ! एवमेतद, यथा ययम् आज्ञापयत । किं तु विदितसंसारस्वरूपस्य प्राणिनः तद्वियोगोद्यतस्य तस्योच्छेदकारणं न को किया जाता है । मासादिक अनेक प्रतिमाओं का पालन, नाना प्रकार के द्रव्यादि का अभिग्रह, अस्नान भूमिशयन, शरीर की सजावट का त्याग तथा समस्त समयों में गुरु की आज्ञा का पालन किया जाता है । क्षुधा, पिपासा आदि परीषहों को सहा जाता है, देवताओं आदि द्वारा किये गये उपसर्गों पर विजय प्राप्त की जाती है, प्राप्त या अप्राप्त में सन्तोष धारण करना पड़ता है । अधिक कहने से क्या, यह अत्यन्त कठिनाई से करने योग्य, निरन्तर महापुरुषों द्वारा वहन किये गये अठारह हजार शील के भेदों से युक्त है । अतः यह दोनों भुजाओं से महासमुद्र को तैरना, बिना स्वाद वाली बालू का भक्षण करना, तीक्ष्ण तलवार की धार पर चलना या सरकना, अच्छी प्रकार होती गयी अग्नि में (अपने आपको) गिराना, सूक्ष्म वायु को पोटली में भरना, गंगा के प्रवाह के विपरीत तैरना, तराजू पर सुमेरु को तोलना, अकेले ही चतुरंग सेना को जीतना, विपरीत भ्रमण करते हुए अर्धचक्र के ऊपर की स्त्री पुतलिया को वेधना तथा जिसे पहले ग्रहण नहीं किया है ऐसी तीनों लोकों की विजयपताका को ग्रहण करना है । इनके समान श्रमणपना दुष्कर है।" अनन्तर इसे सुनकर प्रसन्न मुखकमल वाले शिखिकुमार ने कहा- "भगवन् ! यह ऐसा ही है, जैसी कि आपने आज्ञा दी, किन्तु संसार के स्वरूप को जानने वाले प्राणी के लिए, जो कि संसार को छोड़ने के लिए उद्यत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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