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________________ तइलो भयो ] भयवं ! सोहणी समणत्तणारिहो भयवया पवेइओ । अहं पुण समुदसंपन्नो । ता एवं निवेइए भयवं पमा ति । तओ परिचितियं भयवया जहा खु एसो महाभागवंतो सुहुमप सिणेसु बियवखणो, अच्चंत - पसंतरुवो, अइणिउणभणिइकुसलो वि य लक्खिज्जइ, तहा भवियव्वमणेणं महाकुलपसूएणं भवविरत्तचित्तेण य । ता इमं ताव एत्थ पत्तकालं, जं एसो उवसंगहिज्जइ त्ति चितिऊण भणियं च णेणंमहासावय ! न से सगुण विप्पहूणो इहं उवसंपज्जइ । जुत्तं च पयइनिग्गुणे संसारवासे जमिणं समणत्तणं, किंतु दुक्करमिदं । एत्थ खलु सव्वकालमेव समसत्तुमित्तभावेण पाणाइवायविरई, अप्प - मत्तयाए अलिय भासणं, दंतसोहणमेत्तस्स वि अदिन्नस्स वज्जणा, मण-वयण काहिं अब्बंभचेर - निरोहो, वत्थ- पत्तो - वगरणेहिं पि निम्ममत्तया, चउव्विहराइभत्तविरई, उपाय- सणावसुद्धपिंडगहणं, संजोयणाइपंच दोसर हियमियकाल भोयणं, पंचसमियत्तणं, तिगुत्तया, इरियासमिया इभावणाओ, अणसण - पायच्छित्त-विणयाइसबाहिरब्भिंतरतवोविहाणं, मासाइया य अणेगाओ पडिमाओ, भणितम् - भगवन् ! शोभनः श्रमणत्वार्हो भगवता प्रवेदितः, अहं पुनः समुपसम्पन्नः । तत एवं निवेदिते भगवान् प्रमाणमिति । ततः परिचिन्तितं भगवता - यथा खलु एष महाभागवान् सूक्ष्मप्रश्नेषु विचक्षणः, अत्यन्त प्रशान्तरूपः, अतिनिपुणभणितिकुशलोऽपि च लक्ष्यते, तथा भवितव्यमनेन महाकुलप्रसूतेन भवविरक्त चित्तेन च । तत इदं तावद् अत्र प्राप्तकालम्, यद् एष उपसंगृह्यते इति चिन्तयित्वा भणितं च तेन - महाश्रावक ! न शेषगुणविप्रहीन इह उपसम्पद्यते । युक्तं च प्रकृतिनिर्गुणे संसारवासे यद् इदं श्रमणत्वम्, किं तु दुष्करमिदम् । अत्र खलु, सर्वकालमेव समशत्रु मित्रभावेन प्राणातिपातविरतिः, अप्रमत्ततया अनलीकभाषणम्, दन्तशोधनमात्रस्यापि अदत्तस्य वर्जना, मनोवचन-कार्यंरब्रह्मचर्यनिरोधः, वस्त्रपात्रोपकरणेष्वपि निर्ममत्वता, चतुविधरात्रिभक्तविरतिः, उद्गमोत्पादनैषणाविशुद्ध पिण्डग्रहणं, संयोजनादिपञ्च दोषरहितमितकाल भोजनम्, पञ्चसमितत्वम्, त्रिगुप्तता, ईर्यासमित्यादिभावना:, अनशन - प्रायश्चित्त-विनयादिसबाह्याभ्यन्तरतपोविधानम्, १६३ श्रद्धा से युक्त है, ऐसा व्यक्ति श्रमण पद के योग्य है ।" शिखिकुमार ने कहा- "भगवन् ! श्रमण पद के योग्य व्यक्ति का भगवान् ने ठीक वर्णन किया, मैं इन गुणों से युक्त हूँ अतः ऐसा निवेदन करने पर भगवान् प्रमाण हैं। अर्थात् अब आप जैसी आज्ञा दें, वैसा करूँ ।" तब भगवान् ने सोचा- यह बहुत भाग्यवान् है, सूक्ष्म प्रश्न करने में निपुण है, अत्यन्त शान्तरूप है, अत्यन्त निपुण उक्तियों में कुशल भी दिखाई पड़ता है अत: महाकुल में उत्पन्न हुए इसे संसार के प्रति विरक्त चित वाला होना चाहिए। अतः अब इसका समय आ गया है जब कि यह धर्म ग्रहण करे - ऐसा विचार कर उन्होंने कहा - "हे महाश्रावक ! शेष गुणों से हीन व्यक्ति इस पद के योग्य नहीं है । स्वभावतः गुणरहित यह जो संसारवास है इसमें श्रमणपना ठीक है, किन्तु इसका पालन करना कठिन है । इसमें सब समयों में शत्रु और मित्र के प्रति समताभाव रखकर प्राणियों की हिंसा से विरक्त होना पड़ता है । प्रमादी न होकर सत्यवचन बोला जाता है । दाँतों को साफ करने के लिए भी दूसरे द्वारा दी गयी वस्तु का निषेध है, मन, वचन और काय से अब्रह्मचर्य का निरोध है, वस्त्र, पात्र और उपकरणों में भी ममत्वभाव छोड़ना पड़ता है । चार प्रकार के रात्रि भोजन से विरत रहते हैं। उद्गम, उत्पादन, एषणा से विशुद्ध ग्रास का ग्रहण तथा संयोजनादि पाँच दोषों से रहित, हितकारी, परिमित और समय पर भोजन करते हैं। पाँच समिति, तीन गुप्ति और ईर्या समिति आदि की भावना की जाती है। अनशन, प्रायश्चित्त, विनय आदि बाह्य और आभ्यन्तर तपों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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