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एयं चव्विहं फासिऊण धम्मं जिणेहि पन्नत्तं । सुंदर ! अनंतजीवा पत्ता मोक्खं सदासोक्खं ॥ ३०५ ॥
तओ एमायणऊण आविन्भूओ सिहिकुमारस्स जिणधम्मवोहो । भणिओ य णेण भयवं विजय सिंघो भयवं ! एवमेवं, ईदिसो चेव एस धम्मो, न एत्थ संदेहो ति । किं तु दाणमइयं मोत्तूण न सेसमेया इमस्स सम्मं अवियला तीरंति गिहत्थेण काउं । ता आचिक्ख भयवं ! केरिलो पुण इस महापुरिससेवियस्स, सयलदुक्खाणलजलस्स, सिद्धिबहुसंग मेक्कहेउणो समणत्तणस्स जोगो त्ति । भगवया भणियं - सुण, समणत्तणारिहो आरियदेसुप्पन्नो, विसिट्टजाइकुलसमन्निओ, खीणप्पायकम्ममलो, तओ चेव विमलबुद्धी 'दुल्लहं माणुसत्तणं, जम्मो मरणनिमित्तं, चलाओ संपयाओ, दुक्खहेयवो विसया, संजोगे, विओगो, अणुसमयमेव मरणं, दारुणो विवागो' त्ति अहिगयसंसारसरूवो, तओ चेव तव्विरत्तो, पयणुकसाओ, थेवहासो, अकोउगो, कयन्नू, विणोअ, पुव्वं पि राया- मच्च-पउरजणबहुमओ, अदोसगारी, कल्लागंगो, सद्धावंतो, थिरसद्धो समुवसंपन्नोय । सिहिकुमारेण भणियं ---
एवं चतुर्विधं स्पृष्ट्वा धर्मं जिनैः प्रज्ञप्तम् ।
सुन्दर ! अनन्तजीवाः प्राप्ता मोक्षं सदासौख्यम् ॥ ३०५ ॥
[ समदाइच्चकहा
तत एतद् आकण्यं आविर्भूतः शिखिकुमारस्य जिनधर्मबोधः । भणितश्च तेन भगवान् विजयसिंहः - भगवन् ! एवमेव, ईदृश एव एष धर्मः, न अत्र सन्देह इति । किं तु दानमयं मुक्त्वा न शेषभेदा अस्य सम्यग् अविकलास्तीर्यन्ते (शक्यन्ते) गृहस्थेन कर्तुम् । तत आचक्ष्व भगवन् ! कीदृशः पुनरस्य महापुरुषसेवितस्य, सकलदुःखाऽनलजलस्य, सिद्धिवधू सङ्गमैकहेतोः श्रमणत्वस्य योग्य इति । भगवता भणितम् - शृणु, श्रमणत्वार्ह आर्यदेशोत्पन्नः, विशिष्टजातिकुलसमन्वितः क्षीणप्रायकर्ममलः, ततश्चैव विमलबुद्धि, 'दुर्लभं मनुष्यत्वम् जन्म मरणनिमित्तम्, चलाः सम्पदः, दुःखहेतवो विषयाः, संयोगे वियोग:, अनुसमयमेव मरणम्, दारुणो विपाकः' इति अधिगत संसारस्वरूपः, ततश्चैव तद्विरक्तः, प्रतनुकषायः, स्तोकहास्यः, अकौतुकः, कृतज्ञः, विनीतः पूर्वमपि राजा -- मात्यपौरजनबहुमतः, अद्वेषकारी, कल्याणाङ्गः, श्रद्धावान्, स्थिरश्रद्धः समुपसम्पन्नश्च । शिखिकुमारेण
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सुन्दर ! जिनों द्वारा उपदिष्ट इन चार धर्मों का स्पर्श ( अनुभव ) कर अनन्तजीव सदा सुखरूप मोक्ष को प्राप्त हुए हैं ॥ ३०५ ॥
अनन्तर इसे सुनकर शिखिकुमार को जिन धर्म का बोध हुआ । उसने भगवान् विजयसिंह से कहा“भगवन् ! यही है, यह धर्म ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं है । किन्तु दानमय धर्म को छोड़कर शेष धर्मों को गृहस्थ अविकल रूप से नहीं कर सकता है। अतः हे भगवन् ! कहिए, महापुरुषों के द्वारा सेवित, समस्त दुख. रूप अग्नि के लिए जल के समान, मोक्षरूपी रमणी के समागम के एक मात्र हेतु श्रमणत्व के योग्य व्यक्ति कैसा होता है ?" भगवान् ने कहा – “सुनो, आर्यदेश में उत्पन्न हुआ, विशिष्ट जाति और कुल से युक्त, जिसके कर्ममल क्षीणप्राय हैं, उसकी बुद्धि इस प्रकार की हो कि मनुष्यभव दुर्लभ है । मरण का कारण जन्म है । सम्पत्ति चंचल है, विषय दुःख के कारण हैं । संयोग में वियोग होता है । प्रति समय मरण होता रहता है। ( संसार का कल ) भयंकर होता है। इस प्रकार जिसने संसार के स्वरूप को जान लिया है, अतः उससे विरक्त है । कषायों को जिसने बहुत कम कर दिया है । मन्दहास्य करने वाला है, कौतूहल रहित, कृतज्ञ और विनीत है । पहले भी राजा, मन्त्री, नगर निवासी जिसे बहुत मानते थे, जो द्वेष नहीं करता है, कल्याणमत्र आकृति वाला है, श्रद्धावान् है और स्थिर
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